Saturday, January 7, 2012

एक मौन वार्तालाप


इसने नजरें उठाई, उसने सुना -

"जीवन अब बीत गया मेरा..
फिर भी जाने क्यों प्रतीक्षा तेरा?
कभी तो समझोगी मुझको, 
यह सोच के धैर्य धरे मन मेरा.

कैसे कह दूँ जो कह नहीं पाया? 
ऐसा भी नहीं तेरे समझ न आया.
पहले- पहले की झिझक ने शायद
दोनों को है यह दिन दिखलाया.
मैं क्यों अन्दर से खौल रहा था ?
जब तेरा आदमी तुझ पर बरस रहा था.
तूने खून पिलाकर पाला जिसको,
वह भी तो कैसा उबल रहा था.

इजहार नहीं कर सकती ही तुम!
प्रत्कार नहीं क्यों करती हो?
केवल दो जून की रोटी खातिर,
इतना अपमान क्यों सहती हो?"

उसने नजरें झुका लीं, इसने सुना-

"जिसे देते संज्ञा अपमान की तुम,
वही  असली  धैर्य  है  नारी  का.
पति  और  पुत्र  दोनों  को  ही.
संभालने का पुनीत दायित्व है नारी का.

न  करो  मुझे  निर्बल  इस  तरह,
अंतर  का बल - संबल तो तुम ही हो.
बिन रिश्ते, जीवन तुमने वार दिया,
उनसे तो मेरा रिश्ता है, सीख तूने ही दिया."

दोनों ने एक दूजे को देखा:
दोनों ने शून्य गगन को निरखा,
फिर नील गगन से नीर चुराकर,
एक  दूजे  को  सिर  झुका  दिया.
अपनी वार्तालाप को विराम दिया.


6 comments:

  1. बेहतरीन भाव समन्वय।

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  2. "जिसे देते संज्ञा अपमान की तुम,
    वही असली धैर्य है नारी का.
    पति और पुत्र दोनों को ही.
    संभालने का पुनीत दायित्व है नारी का.

    बहुत सुन्दर...नारी मन के भावों की बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...आभार

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  3. मैं क्यों अन्दर से खौल रहा था ?
    जब तेरा आदमी तुझ पर बरस रहा था.
    तूने खून पिलाकर पाला जिसको,
    वह भी तो कैसा उबल रहा था.

    इजहार नहीं कर सकती ही तुम!
    प्रत्कार नहीं क्यों करती हो?
    केवल दो जून की रोटी खातिर,
    इतना अपमान क्यों सहती हो?"
    आदरणीय डॉ जे पी तिवारी जी हार्दिक अभिवादन ...आप की ये प्यारी रचना नारी के सम्मान को बहुत बढ़ा गयी काश सभी आप जैसे ही नारी के बिभिन्न रूपों का आदर करें उसे प्रेम करें और मान दें तो ये समाज सुधर जाए ..नारी को सब कुछ सह ही नहीं लेना चाहिए अब समय है आवाज उठाने का ..गृह क्लेश कभी नहीं ...
    जय श्री राधे
    भ्रमर ५

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  4. नारी हृदय की व्यथा कथा को व्यक्त करती हुई रचना !

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  5. मित्रों!
    सभी का हार्दिक स्वागत.आपके सुझाओं का सम्मान. इस रचना के लिए दो बातों ने प्रेरित किया. क्या मौन द्वारा लौकिक और व्यावहारिक बातों की अभिव्यक्ति हो सकती है? और दूसरी यदि हो सकती है तो क्या 'प्रेम' जैसी गूढ़ और प्रेम जैसी सरल भावों की अभिव्यति क्या उसी रूप में संभव है जिस रूप में प्रेषक इसे संप्रेषित करना चाहता है? बस यही बात ध्यान में थी और रचना वर्तमान रूप में आपके समक्ष है. हाँ! मैंने ऐसा ध्यान अवश्य रखा जिसमे 'प्रेम' की अपनी पवित्रता और मर्यादा दोनों ही बनी रहे.

    इस रचना में मैंने तीन क्रियाओं का सहारा लिया है. (१) पलकों का उठना: इसका मर्म और निहितार्थ. (२) पलकों का गिरना: इसका मर्म और निहितार्थ तथा (३) दोनों की पलकों का एक निर्णय लेकर आपसी सूझ बूझ के साथ स्वीकृति देना. प्रेम की निर्मलता को, पवित्रता को उसी रूप में बनाये रखना..

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