एक ऐसा समाज, ऐसा राष्ट्र,
जो बसता है सितारों के पार.
जो दीखता है बस ख़्वाबों में,
परियों की कथा-कहानियों में.
नीति शास्त्र के चिंतन-वचन में,
आदर्शवाद की परिकल्पना में,
सजाई रंगोली और अल्पना में.
क्या इसका सृजन -
धरा पर नहीं हो सकता?
यदि नहीं तो क्यों?
और यदि हाँ तो कैसे?
आपके मनमे भी तो उठते
होंगे अनेक प्रश्न हमारे जैसे?
यदि प्रश्न है तो उत्तर भी है,
बिना उत्तर के प्रश्न कैसे?
समीक्षक हो तो लिखो न एक समीक्षा.
यदि परीक्षक हो तो लो न एक परीक्षा.
हमारे इस आध्यात्मिक तट बन्ध की.
सन्नाटे के इस रोचक सुमधुर छंद की.
प्रगति के इस घनघोर पतन की.
पतन के उल्लेखनीय प्रगति की.
हमारे राजनैतिक द्वेष- दुर्गन्ध की.
इस सामजिक सांस्कृतिक छंद की.
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रवारीय चर्चा मंच पर
charchamanch.blogspot.com
धन्यवाद सर! सुझावों की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteऐसा सृजन हो सकता है ... जरूरत है परिश्रम की ...
ReplyDeleteसार्थक और सामयिक पोस्ट,आभार.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधार कर अपना स्नेहाशीष प्रदान करें, आभारी होऊंगा.
प्रगति के इस घनघोर पतन की.
ReplyDeleteपतन के उल्लेखनीय प्रगति की.
हमारे राजनैतिक द्वेष- दुर्गन्ध की.
इस सामजिक सांस्कृतिक छंद की
बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट "लेखन ने मुझे थामा इसलिए मैं लेखनी को थाम सकी" पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
सटीक और सार्थक प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत अच्छी सुंदर प्रस्तुति,बढ़िया सार्थक सटीक अभिव्यक्ति रचना अच्छी लगी.....
ReplyDeletenew post--काव्यान्जलि : हमदर्द.....
बहुत सारगर्भित और सटीक प्रस्तुति..आभार
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