Wednesday, October 12, 2011

मैं हू ऐसा दीप





 
मैं हू ऐसा दीप जो 

सतत जलता रहा,

कभी
 बिन तेलऔर कभी  

बिन बाती के जलता रहा.

जलता रहा हूँ 

अंतर्मन में तेल के भी.

जलाता रहा बत्ती अपनी 

बिना तेल के भी.

तेल की तली को भी 

मै खूब जालाता रहा,

चिराग तले जो अंघेरा था, 

उसे मिटाता रहा.



7 comments:

  1. बहुत बदिया सार्थक रचना /बहुत बधाई आपको /

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  2. क्या बात है! वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  3. बहुत सकारात्मक और सार्थक सोच..बहुत सुन्दर..आभार

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  4. बहुत ही अच्छा सन्देश देती बेहतरीन रचना,बधाई!

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  5. सभी समीक्षकों का ह्रदय से स्वागत एवं आभार.

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  6. सबके अंतस का अंधेरा छंटे यही कामना है।

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  7. Dear all
    Thanks for visit and kind comments please.

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