मैं हू ऐसा दीप जो
सतत जलता रहा,
बिन बाती के जलता रहा.
अंतर्मन में तेल के भी.
जलता रहा हूँ
जलाता रहा बत्ती अपनी
बिना तेल के भी.
तेल की तली को भी
मै खूब जालाता रहा,
चिराग तले जो अंघेरा था,
उसे ही मिटाता रहा.
कभी नजर आया,
जलना मेरा
कभी नहीं आया,
लेकिन सच तो यही है,
कभी बुझा ही नहीं,
हवा के झोंको और थपेड़ों से
जलता रहा,तो जलता रहा.
जो बुझा नहीं कभी,
वर्षा-आंधी-तूफ़ान भी
जिसे उड़ा नहीं सके कभी.
वही
नेह भरे तेल में,
बत्ती सहित डूब गया.
देने वालों ने सारा दोष
दीपक को ही दिया.
लेकिन..
उज्ज्वल-धवल प्रकाश,
बस्ती के गलियारे से
मंदिर तक की राह
यह बात और है -
डूबने के पहले दीपक ने कुछ
और चिराग जला दिया था.
जिन्होंने
दीपक की परंपरा संभाली,.
अपनी 'नयी लौ' बना ली.
यह कुछ की समझ में आया,
कुछ की समझ में नहीं आया.
लेकिन..
उज्ज्वल-धवल प्रकाश,
वहाँ अँधेरी गलियों में,
तब भी भरपूर था,
और अब भी भरपूर है.
पता नहीं -
यह कौन आ गया,
दिल को टटोलने?
डूबी बत्ती निकाली,
लौ को लौ से सटा दी.
फिर तो दीपक और
चिराग, जले तो खूब जले.
बस्ती के गलियारे से
मंदिर तक की राह
और भी रोशन हो गयी.
कहनेवालों ने कहा -
अरे वाह!
अरे वाह!
आज तो दीवाली आ गयी.
सुना दीपक ने, अधर हिले,
होठ मुस्कराए, कपोलों पर
उसके लालिमा सी छा गयी.
होठ मुस्कराए, कपोलों पर
उसके लालिमा सी छा गयी.
No comments:
Post a Comment