Wednesday, October 12, 2011

मैं हू ऐसा दीप





मैं हू ऐसा दीप जो 
सतत जलता रहा,
कभी बिन तेल और कभी  
बिन बाती के जलता रहा.

जलता रहा हूँ 
अंतर्मन में तेल के भी.
जलाता रहा बत्ती अपनी 
बिना तेल के भी.

तेल की तली को भी 
मै खूब जालाता रहा,
चिराग तले जो अंघेरा था, 
उसे ही मिटाता रहा.


जलना मेरा 
कभी नजर आया, 
कभी नहीं आया,
लेकिन सच तो यही है, 
कभी बुझा ही नहीं, 

जलता रहा,तो जलता रहा.
हवा के झोंको और थपेड़ों से 
जो बुझा नहीं कभी,
वर्षा-आंधी-तूफ़ान भी 
जिसे उड़ा नहीं सके कभी.



वही 
नेह भरे  तेल में,
बत्ती सहित डूब गया.
देने वालों ने सारा दोष 
दीपक को ही दिया.

यह बात और है - 
डूबने के पहले दीपक ने कुछ 
और चिराग जला दिया था.


जिन्होंने 
दीपक की परंपरा संभाली,.
अपनी 'नयी लौ' बना ली.
यह कुछ की समझ में आया,
कुछ की समझ में नहीं आया. 

लेकिन..
उज्ज्वल-धवल प्रकाश, 
वहाँ अँधेरी गलियों में,
तब भी भरपूर था, 
और अब भी भरपूर है.


पता नहीं -
यह कौन आ गया, 
दिल को टटोलने?
डूबी बत्ती निकाली, 
लौ को लौ से सटा दी.
फिर तो दीपक और 
चिराग, जले तो खूब जले.

बस्ती के गलियारे से
मंदिर तक की राह 
और भी रोशन हो गयी.
कहनेवालों ने कहा -
अरे वाह!
आज तो दीवाली आ गयी.
सुना दीपक ने, अधर हिले,
होठ मुस्कराए, कपोलों पर
उसके लालिमा सी छा गयी.

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