दीपक,
तन ही नहीं जलाता,
वह मन भी है जलाता.
धूम-धूम जलता दीपक,
नहीं किसी को भाता.
जब तक
शोणित की हर बूँद
न निकल जाय.
जब तक तेल की
हर बूँद न जल जाय.
दीपक, हार नहीं मानता,
तो फिर नहीं मनाता.
दीपक का ताप ही,
सागर में बडवानल है.
दीपक का ताप ही,
काया में जठराग्नि है.
दीपक का
ताप ही धरा को
फोड़कर बाहर आता.
यही कभी सुप्त,
और कभी धधकता
ज्वालामुखी कहलाता.
प्यारे !
केवल दीपक का
यह लौ मत देखो,
लौ का रूप देखो,
बदलता स्वरुप देखो.
आज
रामलीला मैदान में,
राम के तीर और
रावण के सिर में
उसी की आग है.
दीपक को
प्यार दो! भरपूर दुलार दो!!
उसे कौतुहल मत बनाओ.
दीपक तो स्वयं जल रहा,
उसे तुम और न जलाओ.
दीपक
जब तक है मर्यादित,
घर की धवल चिराग है.
जब तोड़ दिया मर्यादा,
वह जंगल की आग है.
दीपक के इस रूप की व्याख्या बहुत सारगर्भित
ReplyDeleteबहुत-बहुत बधाई ||
ReplyDeleteखूबसूरत ||
दीपक
ReplyDeleteजब तक है मर्यादित,
घर की धवल चिराग है.
जब तोड़ दिया मर्यादा,
वह जंगल की आग है.
...बहुत ही सटीक और सारगर्भित...
सभी विचारकों का बहुत - बहुत आभार. टिप्पणियों का स्वागत.
ReplyDeleteदीपक के रूप को विवेचित करती सुन्दर रचना!
ReplyDeleteAnupama apathak,
ReplyDeleteThanks for kind comments.
बहुत सुंदर और सटीक व्याख्या दीपक के विभिन्न रूपों की...आभार!
ReplyDeleteदीपक के विविध रंग मनभावन हैं। बधाई,
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनाएं,
ReplyDeleteदीपक और उसकी लो को शब्द दिए हैं आपने ... बहुत उम्दा प्रस्तुति ..
ReplyDeleteसभी विचारकों का बहुत - बहुत आभार. टिप्पणियों का स्वागत.
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