मेरी काया की नाथ चिंता इतनी?
यह तो मिट्टी है, ..,माया है,
मेरे अंतर्मन की चिंता क्यों नहीं?
जो हमराज पिया, तेरी साया है..
काया को अमर- अजीर्ण बनाकर
हे नाथ ! बोलो क्या पाओगे ?
कर गए अनाथ, इस दुधमुहे को,
जब पूछेगा,क्या कुछ भी कह पाओगे?
तूने जो सब अधिकार दिया था,
क्या छल था? भ्रम या दिखावा था?
दिया न विदा करने का हक़,
क्यों लिया छिन मुझसे मेरा हक़?
मै थी, मैं हूँ , अब भी क्षत्राणी,
दोनों राजवंश की कुल-कल्याणी.
जाते स्वामी जब समभूमि को.
तब निभाती 'विदा-धर्म' क्षत्राणी.
योग भूमि भी समर भूमि है,
हक़ था मेरा तिलक लगाने का.
लेकिन गए छिपकर तुम चोरी से
किया कलंकित जीवनभर शर्माने का.
क्या विश्वास नहीं था मुझ पर?
क्या दुःख यह झेल न पाउंगी?
रोकूंगी बल भर अपने प्रिय को,
नहीं तुम्हे योग भूमि पठाउंगी ?
हठ, क्या कभी तोड़ा था मैंने?
क्या रोक लेती तुझे मै? हे विराट!
देते अधिकार विदाई का जब,
गर्विता सा चमकते मेरे ललाट.
तुम लाद गए मुझपर भार,
मातु-पिता-पुत्र का पालन भार.
यहाँ पर भी किया तूने मनमानी.
दिया न मरने का अधिकार..
अब बन के कलंकिनी बैठी हूँ,
उजाले से भी अब डरती हूँ.
डर जो वैरी है क्षत्राणी का,
हाय! अब गले लगा उसे बैठी हूँ.
मुह छिपा-छिपा मैं चलती हूँ.
दिन - रात वेदना सहती हूँ.
लगे राजमहल यह सूना-सूना,
भूत का डेरा, फिर भी रहती हूँ.
हे नाथ! मुझे समझा -'अबला',
हूँ क्षत्राणी, मैं भी - सबला'.
जीतूँ मैं, हर एक समरभूमि,
हो रण की भूमि, या योग- भूमि.
मै निर्वाण तत्व को क्यों जानू?
साधना- आराधना क्यों जानूं?
मेरी जप-तप-साधना, सब तुम हो.
तुम्हे छोड़ मैं दूजा क्यों जानूँ?
जो भटका दे अपने दायित्वों से,
अधिकारों और कर्त्तव्यों से,
बहका दे जो, राजधर्म से,
मातु-पिता से, पुत्र-पत्नी-कुटुंब से.
कैसे मानूँ, सर्वोच्च आदर्श उसे?
कैसे कह दूं उसको परम ज्ञान?
तुझे भले उसपर अभिमान.
मेरे लिए तो बस अपमान.
हे नाथ ! चाहती हूँ अवसर,
तुम्हे ख़ुशी-ख़ुशी मैं विदा करूँ.
जो ललाट विधि ने लिखा,
सहर्ष सभी कुछ सहा करूँ.
आशा पर जग यह टिका है सारा,
क्यों छोडूं मै दिन फिरने की आशा?
मेरे प्रियतम! कर दो सच इसको,
कहीं रह न जाय, कोरी मेरी आशा. ,
मिटा दो! दाग, कलंक ये मेरा,
हे नाथ ! सविनय यह कहती हूँ.
निवेदन मान यदि जाओगे,
कर दूँगी क्षमा, मै सच कहती हूँ.
utkrisht srijan ko bahut -2 samman va badhayi.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति पर
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ||
बेहतरीन !
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपकी सुंदर रचना पढकर मन आह्लादित हुआ, आभार !
ReplyDeleteयशोधरा के मन की बातें आपने पूरी भावनाओं के साथ व्यक्त किया है।
ReplyDeleteयशोधरा के मन को उकेर कर रख दिया है ..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसभी संवेदी, सुधी पाठकों और समीक्षकों को नमस्कार और उनकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आभार.
ReplyDeleteमित्रों,
इस ऐतिहासिक चरित्र पर लेखनी चलाते दर लग रहा था. बहुत डरते-डरते यशोधरा को एक आधुनिक नारी, अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों के परत जागरूक नारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. और इसे नारी सशक्तिकरण में एक आहुति क रूप में ही देखा है. अपना गुण-दोष स्वयं दिखायी नहीं पड़ता. जो देख लेते हैं वे बहुत पहुचे हुए होते हैं , गुप्त जी की यशोधरा कुलीन परिवार की अत्यंत संयमी बहू है जो किसी के भी समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं करती. बहुत हुआ तो प्रकृति से, छोटे से पुत्र से वार्तलाप कर लेती है जिसमे अंतर का दर्द भी छलक आता है. उस यशोधरा में शिकायत और उपालंभ के शब्द नहीं के बराबर है. इस रचना में यशोधरा एक आधुनिक नारी है जो अपने अधिकारों के प्रति सजग और सतर्क है. तथा सीधे -सीधे अपने पाती से ही पूछती है. शालीनत और संयम का उलंघन यहाँ भी नहीं है, लेकिन तेवर अवश्य ही बदला-बदला है. एक राज की बात बताऊँ इस रचना को मैंने संगीता जी से अवलोकित करा लिया था. उनकी सहमति के बाद ही ब्लॉग पर पोस्ट किया है. उनका बहुत - बहुत आभार.
---सुंदर अभिव्यक्ति.....बधाई
ReplyDeleteगुप्त जी की यशोधरा भी सखि से उलाहना देती है----सखि वे मुझ से कहकर जाते ....
Dr. Shyam Gupta ji,
ReplyDeleteहाँ, सही कहा आपने, लेकिन वहाँ यशोधरा की पीड़ा अपनी अत्यंत अन्तरंग सखी से है, यह उपालंभ की श्रेणी में नहीं आता. उपालंभ तो उससे किया जाता है जिससे शिकायत हो. यह काफी कुछ गोपनीय जैसा ही है. यह तो अंतर्मन की घनीभूत पीड़ा है जो छिपाते-छिपाते भी छलक गया है. पधारने समालोचना और संशोधन तथा सुझाव के लिए आभार.
kaash buddh yashodhara ko samajh pate.
ReplyDeletesunder pravanchna.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!
ReplyDeleteनमस्कार और बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आभार.
ReplyDeleteकैसे मानूँ, सर्वोच्च आदर्श उसे?
ReplyDeleteकैसे कह दूं उसको परम ज्ञान?
तुझे भले उसपर अभिमान.
मेरे लिए तो बस अपमान.
हे नाथ ! चाहती हूँ अवसर,
तुम्हे ख़ुशी-ख़ुशी मैं विदा करूँ.
जो ललाट विधि ने लिखा,
सहर्ष सभी कुछ सहा करूँ.
नारी का स्वाभिमान और समर्पण....
नमस्कार और बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आभार.
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