Saturday, August 6, 2011

यदि मौन बड़ा तो लेखन-प्रवचन क्यों?

यदि मौन ही,
सत्य की अभिव्यक्ति है -
तो लेखक, चिन्तक, कलाकार और
कवि लेखनी क्यों है उठता ?
कैनवास पर ब्रश क्यों है चलाता ?
शब्दों का भ्रम - जाल क्यों फैलता ?
अपनी अनुभूतियों, अपने बोध को,
जन सामान्य के बीच क्यों है लाता ?

क्यों कि;
चिन्तक, कवि और सत्यद्रष्टा,
निरा-स्वार्थी नहीं; संचयी नहीं,
होता है वह - 'लोकमंगलकारी..
कामना लोकमंगल क़ी,
किये रहती है उसे
व्यग्र, बेचैन और परेशान.
संवेदनाएं शांत बैठने नहीं देती.
आंतरिक ऊर्जा के प्रवाह में ही,
वह ब्रश और लेखनी उठाता है,
पूरी क़ी पूरी कापियां, डायरियां
और कनवास को रंग जाता है..

वह जनता है -
सत्य ही परम है, परम ही सत्य है.
यह दृश्य तो अदृश्य का ही विवर्त है.
सत्य, गूंगे का गुड है.
सत्य अकथ्य अवश्य है, 'अबोध' नहीं.
दुर्बोध है, अदृश्य नहीं .
सत्य साक्षात्कार के लिए चाहिए,
दिव्य चक्षु, अंतर्दृष्टि, आत्मबोध.
और ...उस मौन को प्रखर रूप में,
सुनने, समझने क़ी क्षमता.

साहित्य, प्रतीक और चित्र..,
करते है विकास उसी क्षमता का.
साहित्य, प्रतीक और चित्र,
आधारशिलायें हैं, उपयोगी दवाएं हैं,
अंतर्दृष्टि की, संवेदना जागृति की.
अशब्द को जानने की ललक,
जागृत की जा सकती है -
शब्दों.- प्रतीकों - चित्रों से ही.
निहारा जा सकता है -
उन 'अरूप' को सरूप में ही.
निर्गुण के परख की विधा,
गुम्फित है इन गुणों में ही.

इसलिए,
चिन्तक, कवि और कलाकार,
निभाता है, अपना लोक धर्म.
अपनी अनुभूतियाँ बताते - बताते,
हो जाता है स्वयं, एक दिन -'मौन'.
और इस प्रकार, प्रलय से सृष्टि,
और सृष्टि से प्रलय का ,
पूरा एक चक्र, कुशलता से दुहरा जाता है.
सृष्टि के गूढतम - गुह्यतम - रहस्यमय,
सत्य को, बात की बात में ,
कितनी सरलता से समझा जाता है.

14 comments:

  1. क्योंकि मौन कोई न कोई शक्ल लेता है - शब्द, बादल, बारिश, कुछ भी....

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  2. बहुत सुन्दर लाइनें...पर हर अपनी-अपनी जगह सबका महत्व है

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  3. बहुत अच्‍छी रचना .. कभी मौन ही सब समस्‍या को सुलझा लेती है .. कभी समस्‍याओं को सुलझाने के लिए लेखन प्रवचन आवश्‍यक होता है .. सबका अपना अपना महत्‍व है !!

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  4. मौन भी अपने में एक शब्द है...

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  5. Dear sir ,this poetry prove itself sound is more behind to soundless voice ,because we go in to deep with more concentration ..... very useful
    theme of poem ..thanks a lot .

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  6. आपके इस विचारोत्तेजक आलेख को अभी पढा है। एकाध बार और पढकर गुन कर विचार दूंगा।
    बहुत प्रेरित करती रचना।

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  7. बहुत सुन्दर रचना

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  8. मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,आपकी कलम निरंतर सार्थक सृजन में लगी रहे .
    एस .एन. शुक्ल

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  9. बहुत सुंदर रचना ! लाजवाब प्रस्तुती!

    आपके पास दोस्तो का ख़ज़ाना है,
    पर ये दोस्त आपका पुराना है,
    इस दोस्त को भुला ना देना कभी,
    क्यू की ये दोस्त आपकी दोस्ती का दीवाना है

    ⁀‵⁀) ✫ ✫ ✫.
    `⋎´✫¸.•°*”˜˜”*°•✫
    ..✫¸.•°*”˜˜”*°•.✫
    ☻/ღ˚ •。* ˚ ˚✰˚ ˛★* 。 ღ˛° 。* °♥ ˚ • ★ *˚ .ღ 。.................
    /▌*˛˚ღ •˚HAPPY FRIENDSHIP DAY MY FRENDS ˚ ✰* ★
    / .. ˚. ★ ˛ ˚ ✰。˚ ˚ღ。* ˛˚ 。✰˚* ˚ ★ღ

    !!मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये!!

    फ्रेंडशिप डे स्पेशल पोस्ट पर आपका स्वागत है!
    मित्रता एक वरदान

    शुभकामनायें

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  10. चिन्तक, कवि और कलाकार,
    निभाता है, अपना लोक धर्म.
    अपनी अनुभूतियाँ बताते - बताते,
    हो जाता है स्वयं, एक दिन -'मौन'.
    और इस प्रकार, प्रलय से सृष्टि,
    और सृष्टि से प्रलय का ,
    पूरा एक चक्र, कुशलता से दुहरा जाता है.
    सृष्टि के गूढतम - गुह्यतम - रहस्यमय,
    सत्य को, बात की बात में ,
    कितनी सरलता से समझा जाता है.

    अपने इस प्रयास में वह कितना सफल होता है होता भी है या नहीं इसकी भी उसे फ़िक्र नहीं होती वह तो अपने सत्य को शब्दों के माध्यम से व्यक्त भर करना चाहता है... अति सुंदर आभार!

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  11. आप सभी अध्येताओं, समीक्षकों, समालोचकों को इस प्यार भरे समर्थन और प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत आभार. आप ही लोगों के प्यार ने अपने भावों-विचारों को प्रस्तुतुय कर पता हूँ. जब ब्लॉग जीवन में प्रवेश नहीं था तो मेरे पास कहने सुनने- लिखने को कहीं कुछ नहीं था, यदि कहीं अंकुर था भी उसी प्रकार का जिस प्रकार का प्रत्येक व्यक्ति बाथरूम सिंगर होता है. लेकिन आप ही लोग हैं जिन्होंने कलम ऐसी पडा दि की की अब साथ छोट्टा है नहीं. अ६० से अधिक पस्त ब्लॉग पर आ चुकीं हों और ३०० ड्राफ्ट में पड़ी हैं. यह है स्नेह और समर्थन का परिणाम.

    आभार आप सभी का ,,, पुनः - पुनः आभार.

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  12. मौन मन की शांति है ....उसकी पूर्ति
    शब्द और अभिव्यक्ति ....इस जीवन की आवश्यकता ...

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  13. आप सभी अध्येताओं, समीक्षकों, समालोचकों को इस प्यार भरे समर्थन और प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत आभार.

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