Saturday, June 11, 2011

चर्चा-परिचर्चा बुद्ध के पत्रों पर

अत्यंत हर्ष का विषय है कि प्रज्ञा पुरुष महात्मा बुद्ध पर लिखे पत्र "बुद्ध का पत्र यशोधरा के नाम" पर ब्लॉग मनीषियों की सार गर्भित प्रतिक्रियाएं / समीक्षाएं प्राप्त हुईं, उनमे सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न था - 'बुद्ध को तो मुक्ति मिल गयी पर यशोधरा की क्या गति? क्या उसे मुक्ति मिली?" इसी प्रकार के कई और प्रश्न थे जिसके समाधान के लिए "बुद्ध का दूसरा पत्र" नामक रचना अस्तित्व में आयी. इस प्रश्न की समीक्षा में भी कुछ प्रश्न उठे जिसमे सर्वाधिक महत्पोर्ण और विचारणीय प्रश्न था - 'क्या संसार से दुःख मिटा? क्या बुद्ध को मुक्ति मिली?'. इस सन्दर्भ में परिचर्चा को आगे बढाते हुए विनम्रता पूर्वक निवेदन है -


हाँ बुद्ध अभी भी बद्ध,
हुए न अब तक मुक्त
नहीं हुआ पूरा संकल्प
इसीलिए हैं अभिशप्त.
दुःख निरोध नहीं आसान,
वैश्विकस्तर से बड़ा है काम
'मैत्रेय' रूप उन्हें आना होगा,
वादा अपना निभाना होगा.

आज की यशोधरा भी कहाँ
कर रही वचनों का निर्वाह?
लौकिक यश के मोह जाल में
फंस नित हो रही है हैरान.
गौतम ने त्यागा राजपाट,
वह संग्रह में राज्य के जुटी हुयी है,
बुद्ध तो चाहते हैं - 'निर्वाण',
वह भोग में आज भी डूबी हुयी है.

जब तक होगा द्वन्द जगत में
और विरोधाभास...,
अनुभूति के स्तर पर,
तब तक दुःख का आभास.
यदि दुःख को जड़ से मिटाना है,
समता आदर्शों में लाना होगा,
आर्यसत्य हैं नहीं असत्य,
उनके तथ्यों को अपनाना होगा.

पहला सत्य, जगत यह दुखमय,
दूजा, इस दुःख का भी कोई कारण है.
कारण का निदान 'अष्टांग योग',
चौथा सत्य दुःख निरोध संभव है.
और इसी का नाम 'निर्वाण' है.
इसे ही अब अपनाना होगा,
जगत से दुःख भगाना होगा.
निर्वाण ही है सत्य अंतिम.
अंततः सबकी है गति अंतिम.

मेरा निजी विचार:

बुद्ध गौरव हैं भारत भूमि के,
वे ऐतिहासिक पुरुष नहीं,
एक "प्राज्ञ पुरुष" हैं,
स्वयं एक इतिहास हैं,
यह सृष्टि उनकी करुणा
का विकास और विलास है.


नहीं हूँ विरोधी बुद्ध का मै,
उनका 'शील' उनकी 'संयम',
उनकी 'वेदना' उनकी ' प्रज्ञा',
उनका 'बोध' उनकी 'समाधि',
बहुत - बहुत प्रिय है मुझे.
उनके 'चार आर्य सत्य''
उनका 'अष्टांग योग',
उपयोगी ही नहीं....
अनिवार्य तत्व हैं ..
मानवता की स्थापना के लिए.


गंभीर अध्ययन किया है
उनके 'जीवन यान' का..,
'हीनयान' और 'महायान' का भी.
खूब पढ़ा है - 'बोधि सत्व' को,
और नागार्जुन के 'शून्यवाद' को भी.
फिर भी क्यों...? आखिर क्यों..?
सहमत नहीं हूँ मैं, उनके प्रयाण से ...
उनकी परिकल्पना के 'निर्वाण' से...


जीवन तो एक उल्लास है,
इसमें शांति की सहज प्यास है.
.'निर्वाण' तो एक आभास है,
और 'लौ' तो स्वयं प्रकाश है.
कितने वे लगते हैं अच्छे,
जब कहते - "आप्पो दीपो भव".
जब चर्चा करते "बुझ जाने की"
तब विल्कुल बच्चे लगते हैं.


पूछता हूँ स्वयं से एक प्रश्न,
बार - बार फिर बारम्बार,
प्रत्युत्तर में कहीं दूर अन्तः से,
आती है एक स्पष्ट आवाज:
नहीं चाहिए मुझे 'प्रयाण',
यदि अर्थ है इसका बुझ जाना.
मैंने केवल 'लौ' को जाना.


आंधी और तूफ़ान में देखो,
'लौ' को खूब लहराए दीपक,
बुझने से पहले भी देखो;
सौ - सौ दीप जलाये दीपक.
मुझको यह दीपक है प्यारा,
प्यारा इसका जलते रहना.
इस जलते दीपक की खातिर,
जन्म - मृत्यु सब कुछ है सहना.

12 comments:

  1. बुद्ध तो चाहते हैं - 'निर्वाण',
    वह भोग में आज भी डूबी हुयी है.

    आज की यशोधरा की बात जब आप कह रहे हैं तो आज के ही बुद्ध की बात भी करें ...आज के बुद्ध ( पुरुष ) के भोगवाद पर आपके क्या विचार हैं ...

    जो ज्ञान बुद्ध ने दिया वो निश्चय ही निर्वाण की ओर ले जाने वाला है ..शांति देने वाला है ... लेकिन कितने लोंग उसको अपनाते हैं ?

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  2. @ रश्मि प्रभा जी,
    स्वागत तथा उत्साहवर्द्धन हेतु आभार.

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  3. संगीता जी
    आज का बुद्ध भी कहाँ मुक्त हो पाया है अब तक? वह तो आज भी बद्ध है. इसी बात को संकेतित करते हुए कहा गया है -
    " हाँ बुद्ध अभी भी बद्ध, हुए न अब तक मुक्त, नहीं हुआ पूरा संकल्प इसीलिए हैं अभिशप्त.".
    उन्हें आवश्यक परिमार्जन और शोधन करने के लिए ही 'मैत्रेय रूप ' में पुनः आना है. उनके निर्वाण की अवधारणा से अपनी असहमति मै पहले ही व्यक्त कर चुका हूँ और इसके लिए कारण भी बता चुका हूँ.
    जीवन तो एक उल्लास है,
    इसमें शांति की सहज प्यास है.
    .'निर्वाण' तो एक आभास है,
    और 'लौ' तो स्वयं प्रकाश है.
    कितने वे लगते हैं अच्छे,
    जब कहते - "आप्पो दीपो भव".
    जब चर्चा करते "बुझ जाने की"
    तब विल्कुल बच्चे लगते हैं.


    पूछता हूँ स्वयं से एक प्रश्न,
    बार - बार फिर बारम्बार,
    प्रत्युत्तर में कहीं दूर अन्तः से,
    आती है एक स्पष्ट आवाज:
    नहीं चाहिए मुझे 'प्रयाण',
    यदि अर्थ है इसका बुझ जाना.
    मैंने केवल 'लौ' को जाना.

    लौ का जलना एक पुरुषार्थ है. पुरुषार्थी कोई भी हो सकता है महिला हो या पुरुष. मैं नहीं समझता की अब भी और स्पष्ट करने की आवश्यकता है. बात जहां तक भोगवादी प्रव्रोत्ति की है यह दोनों के लिए समान रूप से घातक है, चाहे वह पुरुष हो, अथवा नारी. लिंग भेद का कोई महत्व नहीं. तयद और भोग का दोनों के लिए सामान महत्व है. इसे पुरुष और महिला के रूप में नहीं देखना चाहिए. आपके विचारों को सम्मान पूर्वक स्वीकारते हुए अपने लिए प्रेरक मानता हूँ. समीख्गा और प्रश्न केलिए आभार....

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  4. bahut hi saarthak aur achchi rachanaa.badhaai.

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  5. मूल पोस्ट और टिप्पणियों के माध्यम से भरपूर ज्ञान की प्राप्ति हुई।

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  6. Prerna Aegal ji,
    Manoj ji,
    आप दोनों का स्वागत और पधारने तथा उत्साहवर्द्धक टिप्पणिओं के लिए.

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  7. http://urvija.parikalpnaa.com/2011/06/blog-post_12.html

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  8. कविता और चर्चा के माध्यम से सार्थक बहस । संगीता जी के प्रश्न और आपके उत्तर बहुत convincing हैं ।
    आभार।

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  9. मुझको यह दीपक है प्यारा,
    प्यारा इसका जलते रहना.
    इस जलते दीपक की खातिर,
    जन्म - मृत्यु सब कुछ है सहना.

    बहुत गहन चिंतन..बहुत सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति..आभार

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  10. gabhir chintan ka sunder swarup apki kavy salila men .... sunder .

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  11. Divya ji,
    Kailash bhai,
    Udai veer bhaai

    Thanks to all for visit and creative comments please.

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