Saturday, October 2, 2010

बापू के नाम खुला पत्र

बापू! मै भारत का वासी, तेरी निशानी ढूंढ रहा हूँ.
बापू! मै तेरे सिद्धान्त, दर्शन,सद्विचार को ढूंढ रहा हूँ.
सत्य अहिंसा अपरिग्रह, यम नियम सब ढूंढ रहा हूँ.
बापू! तुझको तेरे देश में, दीपक लेकर ढूंढ रहा हूँ.

कहने को तुम कार्यालय में हो, न्यायालय में हो,
जेब में हो, तुम वस्तु में हो, सभा में मंचस्थ भी हो,
कंठस्थ भी हो, हो तुम इतने ..निकट - सन्निकट...,
परन्तु बापू! सच बताना आचरण में तुम क्यों नहीं हो?

उचट गया मन इस समाज से, देखो कितनी दूषित है.
रीति-नीति सब कुचल गयी, नभ-जल-थल सभी प्रदूषित है.
घूमा बहुत इधर उधर, मन बार - बार तुमपर टिकता है.
अब फिर आ जाओ गांधी बाबा, मुझे तेरी बहुत जरुरत है.

संत भगीरथ ने अपने पुरखों को, गंगाजल से तारा है.
तुम भी तो एक 'राजसंत' थे, हमने बहुत विचारा है.
तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
नई पौध को सिंचित करके, एक भारत नया बनाना है.

अपनी गंगा तो सूख सी गयी, पर नहीं मानव की भूख गयी है.
सूख गयी थी पहले ही सरस्वती, अब गंगा - यमुना की बारी है.
देखो गंगोत्री- जमुनोत्री-गंगासागर को, वहां लगा ग्रहण कुछ भारी है.
दशा सुधरने में हम अक्षम, कुछ कर न सके, अफ़सोस यही लाचारी है.

एक आस विश्वास तुम्ही पर, कुछ हक़ है, तभी पुकारी है.
थोडा सा हूँ जिद्दी मै भी, अभियान प्रदूषण मुक्ति की ठानी है.
अस्त्र- शस्त्र है मात्र लेखनी, उसी के बल जंग ये जीती जानी है.
बिना शस्त्र तो तुम भी लड़े थे, बड़ों - बड़ो को चित किये थे .

देखो! मै भी शस्त्र हीन हूँ, तुम्हे मेरा साथ निभाना है.
अब तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
गंगाजल जो तुम लाओगे उस धारा को गोमुख से हम जोड़ेंगे.
गंगा-यमुना नहीं सूखने देंगे, जलधारा अजस्र स्रोत से जोड़ेंगे.

दूषित नीति मिटायेंगे, सब कलुष - कलेश भगायेंगे.
नयी उमंगें, नई तरंगे लायेंगे ; अब नया सवेरा लायेंगे.
अब तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
जल्दी गंगाजल लेकर आओ, यह अनुरोध हमारा है.
यह अनुरोध हमारा है. ....हाँ ... यह अनुरोध हमारा है.

13 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. कहने को तुम कार्यालय में हो, न्यायालय में हो,
    जेब में हो, तुम वस्तु में हो, सभा में मंचस्थ भी हो,
    कंठस्थ भी हो, हो तुम इतने ..निकट - सन्निकट...,
    परन्तु बापू! सच बताना आचरण में तुम क्यों नहीं हो?

    Congratulations for a brilliant creation! We are with you in this quest!

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  3. नयी उमंगें, नई तरंगे , बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  4. नमस्कार तिवारी जी !!!!!!!!
    बहुत ही उम्दा लिखा है
    टिप्पणी के लिये धन्यवाद !!!!!!!!

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  5. दूषित नीति मिटायेंगे, सब कलुष - कलेश भगायेंगे.
    नयी उमंगें, नई तरंगे लायेंगे ; अब नया सवेरा लायेंगे.
    अब तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
    जल्दी गंगाजल लेकर आओ, यह अनुरोध हमारा है.
    बहुत सुन्दर प्रेरणा देती रचना। बापू जी व लाल बहादुर शास्त्री जी को शत शत नमन।

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  6. Vandna ji, Anjana ji, Kushvansh ji, Upendr ji, aur Nimala ji.

    Aap vichaarshilon ka aabhar. Gandhi aur Shaastri jayanti par der sari badhayiyan. Thanks to all.

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  7. उचट गया मन इस समाज से, देखो कितनी दूषित है.
    रीति-नीति सब कुचल गयी, नभ-जल-थल सभी प्रदूषित है.
    घूमा बहुत इधर उधर, मन बार - बार तुमपर टिकता है.
    अब फिर आ जाओ गांधी बाबा, मुझे तेरी बहुत जरुरत है....

    बहुत ही सारगर्भित और समसामयिक प्रस्तुति...गाँधी जी के फोटो के नीचे बैठ कर ही जब भ्रष्टाचार का नाटक होता हो तो उसे देख कर गाँधी जी की आत्मा को कितना दुःख होता होगा? आज हम गाँधी जी के नाम के आलावा उनकी सभी शिक्षाओं को भूल चुके हैं. और उनका नाम भी केवल २ अक्टूबर और ३० जनवरी को याद आता है ,वह भी उनकी समाधि पर फोटो खिचवाने के लिए. क्या करेंगे आज गाँधी जी इस देश में आकर ? क्या हमारा आचरण देख कर वह फिर आमरण अनशन पर नहीं बैठ जायेंगे और शायद आज उन्हें कोई अपना अनशन तोड़ने के लिए मनायेगा भी नहीं...बहुत ही मन को उद्वेलित करने वाली रचना..आभार..

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  8. आदरणीय शर्मा जी ! प्रणाम!!

    आपकी सारी बाते तर्क सांगत और तथ्य परक हैं परन्तु हम कलम के सिपाहियों के पास अपनी भावनाओं को प्रकट करने और कलम की लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त चारा भी क्या है? अपना दयित अपनी जिम्मेदारी , अपना फर्ज निभा रहें हैं, आप जैसों का सहयोग और समर्थन मिल रहा है क्या यह कम है? हौसला रखिये बदलाव आएगा, नई फसल नई पौध आपके हमारे जीवन काल में दिखाई देने कगेगा ऐसी अस्सहा की जानी चाहिए . आखिर हमरा आपका लेखन और समर्थम कुछ तो परिवर्तन लायेगा ही - चलिए इसी बहाने अपनी एक अन्य रचना की कुछ पंक्तिया सुनाते है -


    पूछते हो - चिन्तक को समाज से
    प्रतिदान में मिलता है क्या? परन्तु ,
    चिन्तक को कभी मान - सम्मान,
    मकान-दूकान की लिप्सा रही है क्या?
    पूछते हो - चिन्तक भौतिक रूप में
    समाज को देता है क्या?

    अरे! चिन्तक समाज को बनाने,
    सवांरने और मिटाने की दवा है.
    यही विज्ञान रूप में सिद्धांत
    और संतरूप में दुआ है.
    चिन्तक समाज को बिन मोल
    वह दे देता है जिसे धन
    कभी खरीद सकता है क्या?

    उसकी पूँजी तो हैं - उसकी संवेदनाएं;
    समाज का दर्द, प्रकृति की चित्कार,
    औचित्य का प्रश्न. जो ग्रहण करता है वह
    अपने ही आस - पास से, परन्तु लड़ता है;
    लोक मंगल के लिए, जन कल्याण के लिए.

    वह ऋणी है - समाज का, सभ्यता का, .....
    संस्कृति का; प्रकृति का, प्रज्ञान का और विज्ञान का....
    वह संतुष्ट है - संवेदनाओं को पाकर, आहत होकर.
    वह आह्लादित है - नीलकंठ होने के पथ पर चलकर.
    ऐश्वर्यशाली है - औचित्य के प्रश्न का समाधान ढूंढकर.

    कर्मयोगी है वह, निठल्ला नहीं,
    टुकड़ों पर पलनेवाला पिल्ला नहीं.
    कनक और कामिनी उसकी कमजोरी नहीं,
    इसलिए उसके पास कोई तिजोरी नहीं.
    आखिर वह भूखों तो मरता नहीं,
    कभी खाली पेट सो जाय, अलग बात है.

    सुनकर सभ्यता - संस्कृति के क्रन्दन को.
    प्रकृति के करुण चित्कार - पुकार को;
    चिन्तक की लेखनी रुक कहाँ पाएगी?
    चैन छिन जाएगा, नींद उड़ जायेगी.
    छलक पड़ेंगे उदगार, गर्जन करेंगे उद्घोष -

    ReplyDelete
  9. आदरणीय शर्मा जी ! प्रणाम!!

    आपकी सारी बाते तर्क सांगत और तथ्य परक हैं परन्तु हम कलम के सिपाहियों के पास अपनी भावनाओं को प्रकट करने और कलम की लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त चारा भी क्या है? अपना दयित अपनी जिम्मेदारी , अपना फर्ज निभा रहें हैं, आप जैसों का सहयोग और समर्थन मिल रहा है क्या यह कम है? हौसला रखिये बदलाव आएगा, नई फसल नई पौध आपके हमारे जीवन काल में दिखाई देने कगेगा ऐसी अस्सहा की जानी चाहिए . आखिर हमरा आपका लेखन और समर्थम कुछ तो परिवर्तन लायेगा ही - चलिए इसी बहाने अपनी एक अन्य रचना की कुछ पंक्तिया सुनाते है -




    अरे! चिन्तक समाज को बनाने,
    सवांरने और मिटाने की दवा है.
    यही विज्ञान रूप में सिद्धांत
    और संतरूप में दुआ है.
    चिन्तक समाज को बिन मोल
    वह दे देता है जिसे धन
    कभी खरीद सकता है क्या?

    उसकी पूँजी तो हैं - उसकी संवेदनाएं;
    समाज का दर्द, प्रकृति की चित्कार,
    औचित्य का प्रश्न. जो ग्रहण करता है वह
    अपने ही आस - पास से, परन्तु लड़ता है;
    लोक मंगल के लिए, जन कल्याण के लिए.

    वह ऋणी है - समाज का, सभ्यता का, .....
    संस्कृति का; प्रकृति का, प्रज्ञान का और विज्ञान का....
    वह संतुष्ट है - संवेदनाओं को पाकर, आहत होकर.
    वह आह्लादित है - नीलकंठ होने के पथ पर चलकर.
    ऐश्वर्यशाली है - औचित्य के प्रश्न का समाधान ढूंढकर.

    कर्मयोगी है वह, निठल्ला नहीं,
    टुकड़ों पर पलनेवाला पिल्ला नहीं.
    कनक और कामिनी उसकी कमजोरी नहीं,
    इसलिए उसके पास कोई तिजोरी नहीं.
    आखिर वह भूखों तो मरता नहीं,
    कभी खाली पेट सो जाय, अलग बात है.

    सुनकर सभ्यता - संस्कृति के क्रन्दन को.
    प्रकृति के करुण चित्कार - पुकार को;
    चिन्तक की लेखनी रुक कहाँ पाएगी?
    चैन छिन जाएगा, नींद उड़ जायेगी.
    छलक पड़ेंगे उदगार, गर्जन करेंगे उद्घोष -

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  10. आदरणीय शर्मा जी ! प्रणाम!!

    आपकी सारी बाते तर्क सांगत और तथ्य परक हैं परन्तु हम कलम के सिपाहियों के पास अपनी भावनाओं को प्रकट करने और कलम की लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त चारा भी क्या है? अपना दयित अपनी जिम्मेदारी , अपना फर्ज निभा रहें हैं, आप जैसों का सहयोग और समर्थन मिल रहा है क्या यह कम है? हौसला रखिये बदलाव आएगा, नई फसल नई पौध आपके हमारे जीवन काल में दिखाई देने कगेगा ऐसी अस्सहा की जानी चाहिए . आखिर हमरा आपका लेखन और समर्थम कुछ तो परिवर्तन लायेगा ही - चलिए इसी बहाने अपनी एक अन्य रचना की कुछ पंक्तिया सुनाते है -



    अरे! चिन्तक समाज को बनाने,
    सवांरने और मिटाने की दवा है.
    यही विज्ञान रूप में सिद्धांत
    और संतरूप में दुआ है.
    चिन्तक समाज को बिन मोल
    वह दे देता है जिसे धन
    कभी खरीद सकता है क्या?

    उसकी पूँजी तो हैं - उसकी संवेदनाएं;
    समाज का दर्द, प्रकृति की चित्कार,
    औचित्य का प्रश्न. जो ग्रहण करता है वह
    अपने ही आस - पास से, परन्तु लड़ता है;
    लोक मंगल के लिए, जन कल्याण के लिए.

    वह ऋणी है - समाज का, सभ्यता का, .....
    संस्कृति का; प्रकृति का, प्रज्ञान का और विज्ञान का....
    वह संतुष्ट है - संवेदनाओं को पाकर, आहत होकर.
    वह आह्लादित है - नीलकंठ होने के पथ पर चलकर.
    ऐश्वर्यशाली है - औचित्य के प्रश्न का समाधान ढूंढकर.



    सुनकर सभ्यता - संस्कृति के क्रन्दन को.
    प्रकृति के करुण चित्कार - पुकार को;
    चिन्तक की लेखनी रुक कहाँ पाएगी?
    चैन छिन जाएगा, नींद उड़ जायेगी.
    छलक पड़ेंगे उदगार, गर्जन करेंगे उद्घोष -

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  11. आदरणीय शर्मा जी ! प्रणाम!!

    आपकी सारी बाते तर्क सांगत और तथ्य परक हैं परन्तु हम कलम के सिपाहियों के पास अपनी भावनाओं को प्रकट करने और कलम की लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त चारा भी क्या है? अपना दयित अपनी जिम्मेदारी , अपना फर्ज निभा रहें हैं, आप जैसों का सहयोग और समर्थन मिल रहा है क्या यह कम है? हौसला रखिये बदलाव आएगा, नई फसल नई पौध आपके हमारे जीवन काल में दिखाई देने कगेगा ऐसी अस्सहा की जानी चाहिए . आखिर हमरा आपका लेखन और समर्थम कुछ तो परिवर्तन लायेगा ही - चलिए इसी बहाने अपनी एक अन्य रचना की कुछ पंक्तिया सुनाते है -



    अरे! चिन्तक समाज को बनाने,
    सवांरने और मिटाने की दवा है.
    यही विज्ञान रूप में सिद्धांत
    और संतरूप में दुआ है.
    चिन्तक समाज को बिन मोल
    वह दे देता है जिसे धन
    कभी खरीद सकता है क्या?

    उसकी पूँजी तो हैं - उसकी संवेदनाएं;
    समाज का दर्द, प्रकृति की चित्कार,
    औचित्य का प्रश्न. जो ग्रहण करता है वह
    अपने ही आस - पास से, परन्तु लड़ता है;
    लोक मंगल के लिए, जन कल्याण के लिए.

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  12. nice one tiwari ji, Thank u 4 visiting my blog n commenting on this .u people motivate me a lo , I also belong to Ballia , Bansdih. presently settled in Allahabad. Thanx again , keep reading . ur post on BAPU is quite thinkable...Mindblowing, as they say.............

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  13. राष्ट्रपिता और शास्त्री जी को शत शत नमन ।

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