रक्त की लाल सी बूंदों को,
जो दे रही थी नवजीवन
बेजान पड़े किसी मानव को.
नहीं जानता हममे कोई
थी किसकी ये बूंदे?
किसी किशोर या प्रौढ़ की
हिन्दू मुस्लिम या बौद्ध की.
जड़ सींच रही थी वह तो
मस्ती में अपनी किसी
अजनवी के बेजान पौध की.
नहीं जानता हममे कोई
आखिर वह बूंदे थी किसकी?
किसी पुरुष या नारी की
योगी - भोगी किसी गृहस्थ
अथवा किसी ब्रह्मचारी की?
रक्त तो है यह - 'मात्र रक्त'
हो स्वेच्छा की या लाचारी की.
दे सकता है 'रक्त' हमारा
दम तोड़ते को पुनर्जीवन,
ले सकता है - 'दंभ' हमारा
हँसता हुआ किसी का जीवन.
अहम् में घुलकर यही ताकत
कुछ उबल-उबल सा जाता है,
यह उबला रक्त समाज को
यूँ ही फिर कहाजाता है.
रक्त - रक्त में भेद है भाई
इस अंतर को जानो तुम भाई,
एक रक्त है - 'जीवनदाता',
दूजा 'समाज का कोढ़' कहलाता.
हम भी करें काम कुछ ऐसा
उपयोगी हो रक्तदान है जैसा,
कौन जाने यह क्या कर जाए?
किसको नव जीवन दे जाए?
नेत्रदान भी महा दान है
परन्तु जनता अब भी अनजान है,
आओ हम ऐसा कर जाएँ,
नेत्रदान कर राह दिखाए.
'गोदान' के फल को देखा नहीं
रक्तदान को नेत्रदान को देखा है,
क्यों उलझें गोदान के पीछे?
गोदान में एक छिपा स्वार्थ है
रक्तदान - नेत्रदान महा पुरुषार्थ है.
बहुत खूबसूरत और प्रेरणादायक बात ..
ReplyDeleteSangeeta ji
ReplyDeleteNamaskar
Yes it is written for encouragement to our sensitive peoples / countrymen for these good work.Again thanks.