Friday, May 28, 2010

क्या मानव होना इतना कठिन है?

संस्कृति के उत्थान और
पतन के साथ ही साथ,
मानवसमाज के उत्थान
और पतन की कहानी सुनी है,
उसे इतिहास - भूगोल के आईने,
तथा युगीन सभ्यता के झरोखों से
देखा परखा भी है,

विभिन्न गोष्ठियों, - सेमिनारों में
इस पर गहन विमर्श किया है,
परन्तु धर्म के नाम पर जैसा
अधर्म, जैसी क्रूरता...., विभत्सता....,
आज दृष्टिगत हो रही है....,
क्या उसे हम धर्म कहेंगे?
क्या इस पर पुनर्विचार करेंगे?


देव मंदिर, लोकतंत्र का मंदिर,
न्याय मंदिर भी नहीं है सुरक्षित.
आदिम मनुष्य तो अशिक्षित था,
अनपढ़, गवार, निरा भावुक था..,
उसका कृत्य तो फिर भी
कुछ समझ में आता है.
परन्तु आज ....२१वी सदी में
यह कलह - कोलाहल... क्यों है?


मजे की बात यह कि धर्म के
ये सभी ठेकेदार डिग्री धारक हैं.
क्या मनुष्य आज अपने धर्म को
पहचान पाया है?
धर्म की बात छोडिये, जाने दीजिये,
क्या स्वयं को पहचान पाया पाया है?


आज का मानव न दाढ़ीवाला रहा,
न चोटीवाला, और न टाई वाला,
अंतर्जातीय वैवाहिक संबंधों के कारण,
आज वह न किसी कुल का रहा,
न किसी परिवार का और
न ही किसी परंपरा विशेष का .


आज मानव की पहचान
मात्र नंबर है, केवल नंबर...,
वह या तो मकान नंबर है,
या राशन कार्ड नंबर.
वह इस नंबर में ही हैरान है,
और निन्यानबे के चक्कर में
परेशान है...........


अंततः वही प्रश्न, आखिर वह है कौन?
क्या वह मोबाइल नंबर और फोन नंबर है?
अथवा पैन कार्ड, वोटर कार्ड, आई कार्ड है?
वह दो पहिया वाहन का नंबर है, या
तीन पहिया और चार पहिया का? ,
वह बैंक नंबर है या टिकेट नंबर है हवाई?
वह हिन्दू है, मुस्लिम है, सिख है या ईसाई?


आखिर इस सभी मान्यताओं
और व्यवस्थाओं के बीच
मात्र मानव क्यों नहीं है?
क्या मानव होना इतना कठिन है?
क्या इतना दुरूह और दुष्कर है?
परन्तु मानवता से बढकर,
क्या कुछ भी श्रेष्ठतर है?


अब दुराग्रह छोडो!,
निद्रा तोड़ो!!, तन्द्रा तोड़ो!!!
अब आगे कदम बढ़ाना होगा,
काट सभी बंधन को हमें,
मानवता को अपनाना होगा.
हां, मानवता को अपनाना होगा.

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