Tuesday, March 9, 2010

अंतर्राष्ट्रीय महिलादिवस : एक समीक्षा

कहाँ गए आज के नारी आन्दोलन के
तथाकथित राजनेता - राजनेत्री, सशक्तिकरण के
ध्वजवाहक नायक और नायिकाएं?
क्या टीवी के विभिन्न चैनलों पर दिखने वाली
'नग्न नारी देह' ही अंतर्राष्ट्रीय प्रगति और
नारी सशक्तिकरण है?
ये सही अर्थों में सम्पूर्ण नारी विकास' को
तो समझ पाए नहीं, ये दिशा क्या देंगे?

हाँ अपना उल्लू सीधा करके अपना
नाम कमाने वाले, अकूत संपत्ति बटोरने वाले,
ये नारी सशक्तिकरण के अग्रदूत;
इसकी शुरुआत निज गृह,
निज परिवार से क्यों नहीं करते?
आखिर सशक्तिकरण के नाम पर
कब तक महिलाओं को
सेल्स ब्रांड बनाया जायेगा?
और उत्पाद बेंचने के लिए
ग्राहकों को फसाया जायेगा?
ये नव व्यापारवाद, पुरुष और
महिला दोनों को बुद्धू बना रहा,
'नारी देह' को नंगा नाचा रहा.
ठंडा - गरम, पिला -पिला,
साबुन,-,शम्पू से नहला रहा,
लोभी पुरुष मानसिकता को लुभा रहा.
इनका इमान - धरम
न नारी सशक्तिकरण है, न
पुरुष वशीकरण,इनका मूल उद्देश्य है-
धन और बाजार की पूंजी पर अधिपत्य.

नारी अधिकारों की वकालत
करने वालों का रूप आज दोनों सदनों में
देखिये, कहाँ गया महिला आरक्षण बिल?
क्यों नहीं पारित हो पाया अबतक?
पारित होने की संभावना भी नहीं,
खोट है नीयत में.क्योंकि अब
स्वयं की कुर्सी खतरे में नजर आ रही.
जो पांच साल के लिए कुर्सी मोह
नहीं छोड़ सकता वह,
नारी सशक्तिकरण के नाम पर
छल / शोषण ही तो कर रहा?

हाँ इतना अवश्य हुआ कि
नारी मन में चौखट लांघने का
एक कौतुहल, उत्साह और उमंग आया है, जो
शिक्षा के माध्यम से, कार्यालय से आकाश तक,
खेल के मैदान से राजनीतिक द्वार तक छाया है.
अब नारी मन कि इसी उमंग, इसी तरंग,
इसी समझ ने इन नेताओं कि नीद को उड़ाया है.
इनमे भय आ समाया है, नारी है क्या?
क्या अब तक इनकी समझ में आया है?
इन्हें क्या पता; नारी मन, शोषण और व्यापार की नहीं;
श्रद्धा, मर्यादा, शक्ति और भक्ति रहस्यमयी पुंज है.
इन नेताओं में नारी के इन्हीं गुणों से तो भय है.

वे अब नारी को बहलाकर- फुसलाकर, समाज में
नारी का ऐसा कुत्सित कुरुपौर अमर्यादित रूप
प्रस्तुत करना चाहते हैं, जिससे नारी स्वयं अशक्त हो जाय.
स्वयं की नज़रों में गिर जाय. अक्षम को नाचाना सरल है,
सबल के समक्ष तो स्वयं ही नाचना पड़ेगा.
नारी सशक्तिकरण इनका केवल नारा है, छल है.

नारी स्वाधीनता की परिकल्पना
कोई पश्चिम की बपौती नहीं.
अनादि काल से बही है यहाँ -
नारी स्वाधीनता की एक धारा.
जो प्रतीक - प्रतिमानों में गुम्फित है
यह, उधार की कठौती नहीं.
सती का हठ, उनका यज्ञाग्नि प्रवेश,
नारी स्वातंत्र्य और
अधिकार का प्रथम उदाहरण है.
अनुसुइया का सामाजिक विद्रोह,
सतीत्व बल, सावित्री का सतवान वरन,
सीता का बन गमन,
मीरा, राधा का अनुराग.
स्वाधीनता का ही है परिचायक.

परन्तु इसमें कहीं भी दांपत्य से दूरी नहीं.
दुराव टकराव तलाक नहीं,
मनुष्यता, मानवता, सामाजिकता का ह्रास नहीं.
मानव समाज मानव सृष्टि को कोई
खतरा नहीं, सृष्टि संरचना को
पुष्ट ही करता है यह अधिकार.
आज उसी अधिकार हेतु आन्दोलन क्यों?

चाहिए यदि वास्तविक अधिकार,
आंशिक नहीं सर्वांश तो वापस लौटना होगा.
पाश्चात्य शैली नहीं, अपनी संस्कृति को
पनाना होगा, उलटना होगा इस धारा को.
और धारा के उलट ते ही होगा चमत्कार,
न कोई शोर - शराबा, न चीत्कार.
धारा अब बन जाएगी - "राधा" .
और "राधा" में रूपांतरण होते ही :
कान्हा हो गया वश में, अब गोकुल तुम्हारी,
मथुरा तुम्हारी, द्वारिका तुम्हारी......
अब सब कुछ तुम्हारा, कान्हा तो है प्रेम से हारा.
सर्वस्व छोड़ अब ;कुछ' के पीछे,भागना क्या?
मणि को छोड़ अब तुच्छ के पीछे नाचना क्या?

इस छलावे में भी अच्छी बात यह है कि,
महिला राष्ट्रपति और महिला स्पीकर,
दोनों भारतीय संस्कृति की संवाहिका है,
देखना यह होगा की उनकी चल कितनी रही?
वे प्रमाण हैं या मुखौटा?
नारी मर्यादा संरक्षण में कितना
सफल हो पातीं हैं, यह भविष्य की बात है,
लेकिन मूल रूप में इस प्रश्न पर
नारी जगत को ही सोचना होगा.
हित उनका किसमे है? कहाँ है?
उन्हें चाहिए क्या? मिल क्या रहा?
और नारी मुक्ति आन्दोलन धारा,
सशक्तिकरण के नाम पर किधर जा रहा?

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