Tuesday, March 9, 2010

अंतर्राष्ट्रीय महिलादिवस : कुछ प्रश्न, कुछ आशंकाएं

एक गुनगुनाता शर्मिला सा सुकोमल नारी मन
यदि चुप हो जाय तो उसका मनुहार होना चाहिए ;
स्तुत्य है, इस व्यथा निवारण का यह पुरुष प्रयास .
सम्प्रेषण और प्रेक्षण की यह कोपविद्या, नारी के लिए है,
सुगम और सरल; साथ ही लाता है मनुहार का एक अवसर.
प्रत्यक्षतः यह दृश्य भी है और श्रव्य भी.
सहयोगी रूप में, दया, ममता, करुना के भाव;
इस सम्प्रेषण को बनाते है, - और भी सबल, प्रबल.

परन्तु एक चुप हो चुके पुरुष मन को,
मानाने और गुदगुदाने का, समझने और समझाने का
नारी प्रयास अर्थहीन है? औचित्यहीन है? और क्यों?
सामंजस्य और भावसंतुलन के स्थान पर उसे पाषाण पुरुष
की संज्ञा देना; आखिर है क्या? क्रूरता या कायरता?
कौन करेगा निर्णय? किसने देखा है - पाषाण पुरुष की
बेजान चुप्पी में, उसके गहन गाम्भीर्य शान्ति में;
वल्लियों उठ रहे कलोल और कोलाहल को?
शान्ति सागर में हिलोरें मार रहे ज्वार - भाटा को?
क्या यह अवमूल्यन नहीं,चेतना का, बौद्धिकता का?
चिंतन की वेदना का? संवेदना की स्वतन्त्रता का?

नारीमुक्ति विमर्श की धारा, उसके सशक्तिकरण की विचारधारा
समय और प्रस्थितिनुसार संवेग और स्वरुप धारण करे,
यह तो समझ में आता है, किंचित भी मतभेद नहीं उससे;
यथोचित उत्साह भरा समर्थन है उसे, वे तो दूसरे हैं
जो इसका राजनितिक विरोघ अपनी क्षुद्र लिप्सा के लिए
करते रहें है, आज भी कर रहे हैं, छोडिये उनकी बात...
प्रश्न यह है कि स्वतन्त्रता के नाम पर अपने तन-बदन को,
बाजारू चीज बना देना, आखिर है क्या? स्वतन्त्रता या स्वच्छंदता?
साथ ही नारी स्वातंत्र्य के नाम पर, नारीत्व और स्त्रीत्व से
मुक्ति कि बात, कहीं से भी नहीं आती समझ में,

यह मानवजाति का विलोपन है या पशुता का उन्नयन?
नारी को प्रकृति प्रदत्त अधिकार, सृजन है; विनाश नहीं.
मानवजाति का विनाश तो नारीजगत का अपमान है.
प्रकृति और प्रवृति से विद्रोह है, यदि नारी प्रकृति प्रदत्त
और संसकृति प्रदत्त अधिकारों कि सुरक्षा नहीं कर पायी,
तो संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा क्या रक्षा कर पाएगी?
नारीत्व और स्त्रीत्व से मुक्ति का प्रश्न, आज सर्वाधिक
विचारणीय प्रश्न है, इससे मुख मोड़ना आत्मघाती होगा.

आचार विचार में यह परिवर्तन,
सैद्धांतिक शब्द विन्यास के कारण है
अथवा अर्थदुर्बोध के कारण? बिना इस मर्म भेदन के,
स्वतंत्रता का लक्ष्य, इसके उद्देश्य की पूर्ति संभव है क्या?
अथवा आज आवश्यकता उन मूलभूत सिद्धांतो के
पुनर्विश्लेषण - पुनर्व्याख्या की है. भ्रम और विभ्रम की,
यह दुरावस्था सशक्तिकरण और नारी मुक्ति आन्दोलन के
नाम पर, कहीं बन न जाये सामजिक कलह का कारण?
टूटते दांपत्य और बढ़ते तलाक पर, क्या आन्दोलन ध्यान देगा?

न जाने क्यों मन सशंकित है, कहीं बन न जाये भावी पीढ़ी ...
बलि का बकरा? अथवा खड़ा न हो जाये , प्रतिक्रियावाद का खतरा?
क्योकि जिस अस्तित्ववादी विचारधारा के पीछे यह आन्दोलन भाग रहा,
वह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे विवाह संस्कार को नकार रहा.
नहीं होंगे विवाह भावी पीढ़ी कहाँ से आएगी?
बिन विवाह सामाजिक रिश्ते क्या टिक पायेंगे?
और बिन रिश्ते हम कहाँ जायेंगे?

हम या तो मानव से च्युत होकर पशु कहलायेंगे,
अथवा इस धरा को मानव विहीन बनायेंगे.
इस प्रश्न का जवाब नहीं है इस विचारधारा के पुरोधा
सिमोन, सार्त्र, हैडगर और किर्केगर्द के भी पास,
इस समस्या समाधान हेतु कौन सा उपचार श्रेयष्कर होगा?
श्रीमान! क्या आप भी कुछ सुझायेंगे? और यदि आज चुप रहे,
तो निश्चित जानिये, इस समस्या को और जटिल ही बनायेंगे..

1 comment:

  1. tiwari ji,
    mere blog par aane ke liye aur apni tippani karne ke liye bahut bhaut aabhaar.
    blog jagat mein aapka swagat hai.
    aate rahiyega!

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