Thursday, July 1, 2010

काश! ऐसा हुआ होता.

सजल नयनों की भाषा,
यदि पढ़ लिया होता,
मूक आमन्त्रण को,
यदि समझ लिया होता.

मौन की आवाज को,
यदि शब्द दे दिया होता,
आत्मपीड़क न बन,
चाहत को बयां किया होता,

दिल की बात यदि,
होठों पर ला दिया होता.
तुम्हारे अंतर का भी ज्वार,
यदि समय से पवां चढ़ा होता,

यह सही है, मै ही चुप था,
तुम्ही ने कुछ कहा होता.
तो ..तो..जो शायद जो कुछ
भी हुआ, नहीं हुआ होता.
काश! कुछ ऐसा हुआ होता.

(करीब २८-३० वर्ष पूर्व विद्यार्थी जीवन की रचना)

Monday, June 28, 2010

स्त्री-पुरुष विमर्श

"पुरुष है कुतूहल और प्रश्न, और स्त्री विश्लेषण, उत्तर और सब बातों का समाधान. पुरुष के प्रत्येक बातों का उत्तर देने के लिये वह प्रस्तुत है. उसके कुतुहल, उसके अभाओं को परिपूर्ण करने का उष्ण प्रयत्न और शीतल उपचार. अभागा मनुष्य संतुष्ट है बच्चों के समान. पुरुष ने कहा, 'क' स्त्री ने अर्थ लगा लिया - कौवा, बस वह रहने लगा."
- जयशंकर प्रसाद

"प्रत्येक पुरुष के लिए स्त्री एक कविता है. कविता उसके सूने दिलों में संगीत भरती है. स्त्री भी उसके ऊबे हुए मन को बहलाती है. पुरुष जब जीवन की सूखी चट्टानों पर चढ़ता - चढ़ता थक जाता है, तब सोचता है - चलो, थोडा मन बहलाव कर लें. स्त्री पर अपना सारा प्यार, अपने सारे अरमान निछावर कर देता है, मानो दुनिया में और कुछ हो ही न और उस के बाद जब चांदनी बीत जाती है, जब कविता नीरव हो जाती है, तब पुरुषों को चट्टाने फिर बुलाती हैं और वह ऐसे भागता है मानो पिंजरे से छूटा हुआ पंछी और स्त्री? स्त्री के लिया वही अँधेरा, फिर वही सूनापन."
- जगदीश चन्द्र माथुर


"पुरुष पानी है और स्त्री गूंगी माटी. पानी में इच्छा जगती है मूर्ति रचने के लिए. यही रचना इच्छा ही उस गूंगी माटी को वाणी और गति दे देती है. शायद इसे ही हमारे यहाँ पुरुष और प्रकृति का नाम दिया गया है - ब्रह्म और माया. पर ये हैं दोनों एक. पानी और मिटटी एक मूर्ति से अलग कैसे हो सकते हैं? एक प्रेरणा है, एक रचना है और दोनों एकाकार हैं - एक हैं. दुर्भाग्य उस दिन शुरु हुआ जब पुरुष ने कहा, 'स्त्री! तू श्रद्धा है, देवी है मैं हूँ - 'ब्रह्मा, मनु और कर्मकार, रचनाकार'. अर्थात स्त्री महज जन्म और पालन के अलावा जगत के सारे कर्मों, व्यापारों, रचनाओं से बिलकुल दूर कर दी गयी. पुरुष जो कुछ भी करे, स्त्री उसे श्रद्धा से स्वीकारे, इससे ज्यादा अपमान पुरुष और क्या कर सकता था? और इससे ज्यादा नुकसान मानवता का और क्या हो सकता था?"
- लक्ष्मी नारायण लाल.


"स्त्रियों का मुख्य कर्तव्य है कि वे अपने सौन्दर्य द्वारा पुरुषो में जीवन का संचार करे, क्योकि पुरुष तभी सद्गुण प्राप्त कर सकते है, जब वे रमणी के अनंत सौन्दर्य पर निछावर होकर उसके व्यक्तित्व में अपनेआपको पूर्णतया अन्तर्हित कर देते हैं."
- स्वेट मार्डेन

"स्त्री ने एक एक करके अपने बहुत से अधिकार इसलिए खो दिए कि वह पुरुष पर आधिपत्य चाहती रही है. इसमें वह उतनी ही स्वार्थी है जितना कि पुरुष जो नारी पर पूर्ण अधिकार चाहता है, परस्पर स्नेह नहीं. जैसे एक द्वंद्व है, जैसे एक मज़बूरी है कि दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते".
- डॉ. रांगेय राघव

"द्विविधा में बंधी हुई स्त्री कभी किसी भी पुरुष को बल नहीं दे सकती. वह कभी एक भाव में रहेगी और कभी दूसरे. एकनिष्ठ सती ही अपने पुरुष को बल प्रदान कर सकती है."
- अमृतलाल नागर

"वास्तव में स्त्रियाँ जल के सामान हैं जो शांत रहने पर शीतल होती हैं पर जब जल में तूफ़ान आता है , तब वह ऐसा भयंकर हो जाता है कि बड़े बड़े जहाज भी टुकड़े- टुकड़े हो जाते हैं."
- आचार्य चतुरसेन

"स्त्री का ह्रदय एक एक विचित्र वस्तु है. वह आज प्यार करती है, कल दुत्कार देती है. प्यार के लिए स्त्री सबकुछ करने को तैयार हो जाती है, परन्तु प्रतिकार के लिए उससे भी अधिक भयानक कर्म कर बैठती है."
- सुदर्शन


Sunday, June 27, 2010

मेरी दिव्य ग्रंथावली


मुझे तलाश है जिसकी वर्षों से, दशकों से,
इसलिए ढूंढ़ रहा हूँ उसे अनवरत लगातार,
इतनी बड़ी दुनिया में, कहीं तो दिखेगी,
कभी तो मिलेगी, वह मेरी 'स्वप्न सुन्दरी'.


वह जो बन जाएगी, 'विचार-संगिनी',
मेरी 'जीवन-संगिनी', 'चिर-संगिनी'.
वह हो कुछ ऐसी, जिसमे बचपन का
अबोध, तुतलाता उन्मुक्त हास्य हो,


अल्हड़ता के साथ छलांग लगाती हुई
कुलांचे मारती हुई एक किशोरपना हो,
कुछ चंचलता हो, चुलबुलापन हो,
अन्तरिक्ष में दूर, उड़ने की ललक हो,
एक उत्कट कुछ करने की अभीप्सा हो,
एक अपरिमित जिजीविषा, उमंग हो.


जिसकी भाषा में भले ही पिक की कूक न हो,
जिसकी शैली में भले ही मयूर का नृत्य ना हो,
काक वाणी से भी परहेज नहीं है मुझे,
परन्तु, अन्तः में चातक सी हूक... तो हो.


चौकिये नहीं,
अपेक्षा न गौरा की है, न गोदावरी की,
न दुर्गा, लक्ष्मी, शारदा की और न ही 'काली' की,
न ही किसी घरवाली की, अथवा किसी साली की.
अपेक्षा तो है, .....एक 'दिव्य काव्य ग्रंथावली की'.


जिसमे भरा हुआ
ईशावास्य का ज्ञान हो,
'ब्लैक होल' सा विज्ञानं हो, गीता सा प्रज्ञान हो,
जो वेदांत सा महान हो, कुछ शाप हो, वरदान हो,
हल्दीघाटी का स्वाभिमान हो, कुछ तीर हो, कमान हो,


जिसमे गार्गी की तर्कशीलता हो,

सावित्री सी तेजस्विता हो, दूरदर्शिता हो,
गौतम बुद्ध की प्रज्ञा हो, महावीर की अहिंसा हो,
नचिकेता सा बालहठ हो, नानक सा सुहृदय हो,
न हो जहाँ एकलव्य को फटकार, कर्ण का तिरस्कार,
जहाँ भीष्म भी अपनी प्रतिज्ञा की समीक्षा कर सके,
जहाँ कोई हुमायूँ राखी की मर्यादा, गर्व से निभा सके.


सीता सी नहीं मिलती
कोई बात नहीं,
किन्तु जो उर्मिला सा प्रतीक्षार्थी हो,
विद्यावती, कलावती, लीलावती, और
पद्मावती भले न हो, परन्तु मुख में,
कबीर की साखी हो. बिहारी की सतसई हो


हजारी सा गाम्भीर्य हो,
शुक्ल सी करुना हो,
परशुराम चतुर्वेदी की, जहाँ बही 'संत परंपरा' हो,
दिनकर की उर्वशी और प्रसाद की कामायनी हो,
मीरा का अल्हड नृत्य हो,महादेवी की हूक हो,
जहाँ नीरज के गीत और बच्चन की हाला हो,
अभिज्ञान शाकुंतलम सी थोड़ी चूक हो ,
मेघ सा कोई दूत हो, ऐसी कोई समन्वित
'काव्य ग्रंथावली ' चाहिए मुझे.


तलाश रहा हूँ,. आज भी
लगातार,
ग्रंथालयों में,.........सम्मेलनों में.
सभाओं में, ..नेट पर, ब्लॉग पर...
ढूंढता हूँ उसे, निकटस्थ मित्रों में,.
दूरस्थ मित्रों में, और उनमे भी,
जिन्हें, आखिर शत्रु कहूँ तो कैसे?
क्या उन्हें मुझसे अनुराग नहीं..?
आखिर दिन-रात
हमारा ही चिंतन करते हैं.
फाँसने का कोई न कोई उपक्रम करते रहते हैं.
जनसे ज्यादा तो, वह नहीं सोचता जो
निकट रहता है, अपने को सगा कहता है.


क्या पूरी हो पाएगी मेरी तलाश ?
क्या मिल पायेगी मुझे मेरी 'श्री राधा' ?
हाँ...., शायद ........हाँ, ... परन्तु......,
बनना पडेगा मुझे, '......श्री कृष्ण सा'.
बदलना होगा स्वयं को, सर्वदा के लिए.


अरे! ऐसा तो कभी सोचा ही न था,
देखा ही न था, इधर दृष्टि गयी ही न थी.
सोचमे मात्र से ही दिखने लगी है......,
मेरी 'श्री राधा', ..मेरी 'दिव्य ग्रंथावली'.
क्या मेरे हाथ, उतने लम्बे हो पायेंगे?
क्या आगे बढकर, उन्हें छू पाएंगे?
स्वयं को सिद्ध करना है अब.


हे 'ग्रंथावली !', हे 'श्री राधा !', अब क्या है बाधा?
अब तुम्ही शक्ति दो, निज की अनुरक्ति दो.
तुम्ही कोई युक्ति दो, अमित - अक्षय भक्ति दो.
समर्पित करता हूँ,
जो भी हूँ, जैसा भी हूँ,
स्व को....,.....तुम्हारे 'श्री चरणों.....' में............



लेकिन अब पाने की अभीप्सा रही कहाँ?
अब छूने की ललक - अभिलाषा बची कहाँ?
तृप्त हो गया मन, नेत्र पान कर.
संतृप्त हो गया हूँ मैं, पृष्ठ पानकर.
सच है, पूर्णता समर्पण में है, तलाश में नहीं.
संतृप्ति में है, शान्ति में है, किन्तु प्यास में नही.
अब तुम में ही डूब चुका हूँ, गहरायी तक ,
डूबना ....और ...मिट जाना ही अमरता है.
अमरत्व ही शाश्वत सत्य है, परम रहस्य है .
यही प्रत्येक गति का चरम लक्ष्य है.


हे 'ग्रंथावली' ! तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन!!
मुझ अकिंचन को, क्या से क्या बना दिया.
हे 'सावित्री' ! तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन !!
तू ने तो मुझे 'सत्यवान' बना दिया.
हे 'श्री राधे' !
तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन !!
तू ने तो मुझे 'श्याम सा' बना दिया.









Tuesday, June 22, 2010

शिक्षा क्या है?

शिक्षा क्या है?
शिक्षा का उद्देश्य है - प्रस्फुटन, अंकुरण,
आतंरिक सृजनात्मक शक्तियों का.
शिक्षा का उद्देश्य है - प्रकटन,
मानव की सम्पूर्ण संभावनाओं का.


शिक्षा है - एक पुनीत अवसर,
सन्मार्गी के स्वरुप में रूपांतरण का.
शिक्षा है - संस्कार के माध्यम से,
संस्कृति की पहचान / अभिवृद्धि का.


शिक्षा है - व्यवहार के माध्यम से,
सभ्यता,
संस्कृति के प्रदर्शन का.
शिक्षा है - आचरण के माध्यम से,
मानवीय मूल्यों में अभिवर्द्धन का.


शिक्षा है -
सर्वोच्च सामाजिक गठन हेतु,
उपयुक्त मनोभूमि की ......
आंतरिक संरचना का.
अनुकूलता, वैयक्तिकता
और ....सार्थकता का.


शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य है -
मानव का देवत्व रूप में उन्नयन.
मानव
का दानव के रूप में पतन,
शिक्षा की असफलता मात्र नहीं,
उसपर न मिटने वाला धब्बा,
और घोर - घनघोर ..कलंक है.


शिक्षा की सफलता में ही,
अंतर्भूत है - व्यक्ति निर्माण,
चरित्र निर्माण, समाज निर्माण
और श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण.
शिक्षा की उपयोगिता में ही
सन्निहित है - वैश्विक शांति,
वैश्विक समृद्धि, वैश्विक सौहार्द्र.


आज शिक्षा के नाम पर,
दृष्टिगत हैं अनेकश: प्रमाण पत्र,
और बड़ी उपाधियाँ, कुछ महँगी,
और कुछ अति महँगी उपाधियाँ.


फिर भी क्यों लगते हैं
ये उपाधि धारक, चंचल मानव,
एक प्रशिक्षित बन्दर ?
क्यों है उनमे गांभीर्य का अभाव?
और क्यों है, सहनशीलता, साहस,
धैर्य, और समुचित आदर का अभाव?


उनकी दृष्टि सतत कार्य और
दायित्व के बजाय, फल और
अर्थ पर ही केन्द्रित क्यों है?
और आज का शिक्षक समाज
मौन और मूक दर्शक क्यों है?

Wednesday, June 16, 2010

प्रेम का मनोविज्ञान


प्रेम तो एक 'अनुभूति' है भाई, नाम इसका 'अनुराग' है भाई.
इस अनुराग के रूप अनेक..., देखना चाहो.. देख .लो भाई.


हां प्रेम तो एक अनुराग है भाई, यह अनुराग फिर राग से जुड़ कर,
भाव और समीकरण बदलकर, मूल्य बदलता रहता है, मेरे भाई.


शिशु के साथ है 'वात्सल्य', नाम .इसी ..अनुराग का,
बालक के संग जुड़ जाता जब, 'स्नेह' यही अनुराग है.


साथी के संग जुड़ता है जब, .'.प्रेम' ..यही ..अनुराग है.
ज्येष्ठो के संग है 'अभिवादन', और श्रेष्ठों के संग 'श्रद्धा' है.


मातु - पिता और गुरुजन के संग, 'भक्ति' ..यही अनुराग है.
बन जाता 'समर्पण भाव' यह, जब मंदिर मस्जिद तो जाता है.

'आशीर्वाद' के रूप में सौ-गुणित, मिलता वापस यही अनुराग है,
हो भाव का तेल, विश्वास की बत्ती, फिर तो यह अखंड चिराग है.


वह अनुराग बन जाता देखो, 'दिव्य - धवल - उज्जवल प्रकाश' है.
अब खुला हुआ है अन्तरिक्ष, ....और ...खुला हुआ....आकाश है.

अपनी -अपनी झोली है ये, कौन समेट पाता है कितना?
जितनी बड़ी पात्रता जिसकी, वह समेट पाता है उतना.

दोष नहीं कहीं कुछ इसमें, नहीं कहीं.. कोई ..धब्बा ...है.
करते धूमिल खुद हम इसको, जब होश नहीं सब गड्ढा है.


'नफरत-इर्ष्या', 'राग-द्वेष' सब, नकारात्मक अनुराग की खाई है,
कैसे पाटोगे ..तुम ....इसको.., ...क्या कोई ..युक्ति .....लगाईं ...है?

अनुराग से ही फिर भर सकता यह, चाहे जितनी चौड़ी खाई हो.
फिर तुम चुप क्यों....बैठे मेरे भैया?, क्यों ....अब देर ...लगाईं है .


प्रेम तो एक 'अनुभूति' है भाई, नाम इसका 'अनुराग' है भाई.
इस अनुराग के रूप अनेक..., देखना चाहो.. देख .लो.. ...भाई.


Tuesday, June 15, 2010

नक्सलियों से एक इंटरव्यू

समाचारों में पढ़ा, टीवी में भी देखा,
ये नक्सली अब बौखला से गए हैं.
मरने - मारने पर उतारू तो थे ही,
अब जन सामान्य पर तो पूरी तरह
कहर बन कर छा गए हैं.
ट्रेन और बसों को उड़ा गए हैं.
ऐसी ही ख़बरें पढ़ते-पढ़ते ना जाने कब?
नीद की आगोश में समां गया, अथवा
कोई नक्सली आप बीती सुनाने उठा ले गया.


मैंने देखा:
उनके घरों को, झोपड़ पट्टे को,
अधपके मोटे चावल ......,
बिना नमक - तेल की सब्जी को.
उसने दिखाया अपनी स्थिति,
...रो रहे बच्चे को.
बोला - भूखा है यह,
इसकी माँ को दूध नहीं उतरता,
गाँव में कोई दूध नहीं देता,
कोई काम नहीं देता.


मैंने कहा:
तुम लोग शहर जाकर
कोई काम धंधा क्यों नहीं करते?
शहर जाने का किराया नहीं,
बिचौलिया पैसा नहीं देता.
ठीकेदार कमीशन ही नहीं खाता,
घरवाली पर डोरे भी डालता साब.
ऐसे पैसे वालों को हम क्यों छोड़ेगा साब ?


परन्तु तुम लोग
ट्रेन यात्रियों को क्यों मारते हो?
ये भी ठीकेदार और बनियों का
साथी होता साब, जेब में पैसा है,.
तभी तो ए.सी. में और ...
स्लीपर में चलता साब.
सरकार सारा डिब्बा एक जैसा
क्यों नहीं बनाता साब?
उनका पेट फूला -फूला और
हमारा पीठ में क्यों घुसा साब?
ये यात्री लोग हमें अपना भाई - वाई
कुछ नहीं मानता साब,
एक दिन ना चलने से,
इनका क्या बिगड़ता साब?
हमारी आवाज सरकार,
कुछ तो सुनता साब.
ये जब हमको अपना नहीं मानता,
हम क्यों माने साब?
हमारे एरिया में एक भी स्कूल,
अस्पताल क्यों नहीं साब?
आज बड़ों के बच्चे कंप्यूटर चलाते
और हमारे अंगूठा लगाते साब.



आखिर ऐसा कब तक चलेगा साब?
क्या आजादी के लिए हमारे पुरखे नहीं लड़े?
इन्हीं पेड़ों में मेरे दादा को रस्सी से बाँध कर
लटका दिया था फिरंगियों ने.
बापू बताता था, अपनी पीठ पर
कोड़े का निशान दिखाता था.
फिरंगियों से तो बच गया था,
देश के सूदखोरों से नहीं बच पाया.
इन्ही कटीली झाड़ियों में घसीटा था,
बहुत बेइज्जत किया था........
खून उगल कर मरा था.............,
बाप मेरा, इसी जगह पर साब.
क्या जन्म लेना अपने हाथ में है साब?
हाथ में होता, किसी बड़े के यहाँ जन्म लेता.
हेलीकोप्टर में, जहाज में, झूला झूलता साब .
यह बिधाता का लेखा है, हमारे साथ तो धोखा है.



मैंने पूछा-
हथियार कहाँ से लाते हो?
रहस्यमयी मुस्कान होठो पे लाकर बोला,
साब आप भी अजीब बात करता है.
साहब लोग बोरा के बोरा नोट कहाँ से लाता है?
उसी को छीनते हैं, अपना पेट भरते हैं
और बाकी जो बचता है,
उससे हथियार खरीदते है.
यदि बोरे के नोट बंद हो जाय,
हथियार बंद हो जाएगा साब.
परन्तु हम जानते हैं, यह बंद नहीं होगा.
ना आप लोग जनता को लूटना बंद करेगा,
ना हम आप को लूटना बंद करेगा.
यह तो इन्साफ की बात है साब,
आप खाते- खाते मरेगा, हम भूखों मरेगा.
यह नहीं होगा साब, कभी नहीं होगा.


मैंने कहा -
क्या अपने मुखिया से मिलाओगे,
.......... कुछ बात - वात कराओगे?
वह बोला, शाम को मिलेगा साब,
इस समय हथियारों के डीलर के पास गया है.
वह कहाँ रहता है? ...
.कुछ दूसरे नेता भी तो होंगे, उन्हें बुलाओ


अरे रग्घू काका!
देखो एक साहब आया है
तुम्हे बुलाया है,
अपनी बात सरकार तक पहुचाने की,
बात करता है, और अपने को
एक पत्रकार कहता है.
आगंतुक बोला, बातों में
शायराना अंदाज का मिसरी घोला.


यदि हँसना जो चाहा हमने,
अरे कौन सा गुनाह किया हमने?
तुम्हे क्या पता, एक पल के लिए,
क्या- क्या नहीं सहा है हमने?
जागृत हुई है चेतना जब से,
दर्द से नाता रहा है तब से.
कितनी राते रो - रो के गुजारी,
पूछो इस बूढ़े अश्वत्थ से.
फिर भी है गर्व, लिया है जन्म
इसी जमी पे, यह समाज मेरा घर है.
आज नहीं दे रहा तो क्या है?
आगे मिलने का अवसर तो है.
यह विश्वास जगाये बैठा....,
आशा बहुत लगाये बैठा.....
उम्र हुई अब साठ बरस की,
हाथ ना अब तक है कुछ आया.
भटक गयी संताने अपनी,
रोका-टोका, पर समझ ना आया.
कहते हैं हक लेंगे अपना,
हम बन्दूक की नोक से,
नोच भगायेंगे इन सबको,
जकड़े हैं जो जोंक से.


लेकिन यह तो गलत है,
बिलकुल अनुचित मार्ग है यह,
उन्हें समाज की
मुख्य धारा में लौटना होगा,
बातों से हल निकालना होगा,
सरकार भी संवेदनहीन नहीं है.
अब आगे कदम बढ़ाना होगा,
वार्ता की मेज पर आना होगा.


तब तक किसी ने,
मेरे सिर को जोर से झकझोरा....
देखा, श्रीमतीजी हाथ में
चाय का प्याला लिए खड़ी है,
बोली - शादी के पहले
तो मेरा नाम जपते थे,
अब शादी के बाद,
यह किसका जाप कर रहे हो?
मै झल्लाया, चीखा, चिल्लाया,
तुम यहाँ भी टांग अड़ा गयी.
मै नक्सलियों की बस्ती में गया था,
कोई समझौता हो गया होता,
कोई फ़ॉर्मूला, कोई बीच का
रास्ता निकल गया होता....,
तो मेरा भी काम बन गया होता,
नाम के साथ दाम भी मिला होता.
कोरी पत्रकारिता से क्या होगा?
चाय की चाय ही रहेगी.
ये नक्सली भी वीरप्पन से कम नहीं,
देखा था, उस समय कितनो की चाँदी थी.
हाय! मालामाल होने का,
हाथ आया एक अवसर गया.
हर बार की तरह इस बार भी
यह सेहरा, तेरे ही सिर गया

Sunday, June 13, 2010

माँ कभी मरती नहीं

बहुत ..बीमार... है ..माँ....
आज माँ के पास बैठा ..हूँ.
बहुत निकट, उससे एकदम सट कर.
तो क्या एक दिन माँ मर जायेगी?
क्या माँ फिर नजर नहीं आएगी?
ना जाने कैसे मन की बात सुन लिया?
वह धीरे ..से ...फुसफुसाई..........,
बहुत धीमी मंद आवाज आई.....-
"माँ मरती नहीं, कभी मरती नहीं बेटे "


हाँ, माँ ने बिलकुल ठीक कहा था:
माँ मरती नहीं ...माँ मर नहीं सकती,
देख रहा हूँ उसे..., प्रकृति में ,
शून्य में...विलीन होते हुए ....आज...
माँ, अब शारीर नहीं है.., रूप नहीं है...,
स्वरुप नहीं है.., आकृति..नहीं है .
माँ, केवल शब्द ....नहीं है ....
'शब्द' - 'अर्थ' के बंधन को वह तोड़ चुकी है.


अब तो ...........अब ........तो...........
माँ, एक सम्पूर्ण ... अभिव्यक्ति है........
माँ, एक जिम्मेदारी है, एक दायित्व है,
माँ ही पृथ्वी के रूप में उत्पादक है,
नदी और जल रूप में पोषक है,
मेघ रूप में वर्षा है, पुष्प रूप सुगंध है,
झरना रूप प्रवाह है, पपीहा रूप में गान है,
राग रूप दुलार है वह, और डांट रूप निर्माण है.
रोटी रूप में भोजन है वह, श्वेद रूप में श्रम है.
थल रूप ठोस वही, तरल रूप में बहता जल है.
स्वप्न रूप में लक्ष्य वही है, साहस रूप में गति है.
प्रेरक वही, प्रेरणा वही, सन्मार्ग रूप प्रगति है.


माँ अब वैयक्तिक आत्मा नहीं..., .
विश्वात्मा है......, परमात्मा है.....
माँ को अब इसी रूप में निहारना है,
माँ तो दे चुकी, उसको जो कुछ भी देना था.
सन्मार्ग दिखाने आयी थी, नाता तो एक बहाना था.
अब हमको पथ पर चलना है,
जो कुछ है अबतक सिखलाया,
काम वही अब करना है. प्रकृति रुपी माँ!,
हे विश्व रुपी माँ!! , हे श्रृष्टि रुपी माँ!!! ,
तुम्हे नमन!, बारम्बार नमन!! , कोटिशः नमन!!!