मुझे तलाश है जिसकी वर्षों से, दशकों से,
इसलिए ढूंढ़ रहा हूँ उसे अनवरत लगातार,
इतनी बड़ी दुनिया में, कहीं तो दिखेगी,
कभी तो मिलेगी, वह मेरी 'स्वप्न सुन्दरी'.
वह जो बन जाएगी, 'विचार-संगिनी',
मेरी 'जीवन-संगिनी', 'चिर-संगिनी'.
वह हो कुछ ऐसी, जिसमे बचपन का
अबोध, तुतलाता उन्मुक्त हास्य हो,
अल्हड़ता के साथ छलांग लगाती हुई
कुलांचे मारती हुई एक किशोरपना हो,
कुछ चंचलता हो, चुलबुलापन हो,
अन्तरिक्ष में दूर, उड़ने की ललक हो,
एक उत्कट कुछ करने की अभीप्सा हो,
एक अपरिमित जिजीविषा, उमंग हो.
जिसकी भाषा में भले ही पिक की कूक न हो,
जिसकी शैली में भले ही मयूर का नृत्य ना हो,
काक वाणी से भी परहेज नहीं है मुझे,
परन्तु, अन्तः में चातक सी हूक... तो हो.
चौकिये नहीं,
अपेक्षा न गौरा की है, न गोदावरी की,
न दुर्गा, लक्ष्मी, शारदा की और न ही 'काली' की,
न ही किसी घरवाली की, अथवा किसी साली की.
अपेक्षा तो है, .....एक 'दिव्य काव्य ग्रंथावली की'.
जिसमे भरा हुआ ईशावास्य का ज्ञान हो,
'ब्लैक होल' सा विज्ञानं हो, गीता सा प्रज्ञान हो,
जो वेदांत सा महान हो, कुछ शाप हो, वरदान हो,
हल्दीघाटी का स्वाभिमान हो, कुछ तीर हो, कमान हो,
जिसमे गार्गी की तर्कशीलता हो,
सावित्री सी तेजस्विता हो, दूरदर्शिता हो,
गौतम बुद्ध की प्रज्ञा हो, महावीर की अहिंसा हो,
नचिकेता सा बालहठ हो, नानक सा सुहृदय हो,
न हो जहाँ एकलव्य को फटकार, कर्ण का तिरस्कार,
जहाँ भीष्म भी अपनी प्रतिज्ञा की समीक्षा कर सके,
जहाँ कोई हुमायूँ राखी की मर्यादा, गर्व से निभा सके.
सीता सी नहीं मिलती कोई बात नहीं,
किन्तु जो उर्मिला सा प्रतीक्षार्थी हो,
विद्यावती, कलावती, लीलावती, और
पद्मावती भले न हो, परन्तु मुख में,
कबीर की साखी हो. बिहारी की सतसई हो
हजारी सा गाम्भीर्य हो, शुक्ल सी करुना हो,
परशुराम चतुर्वेदी की, जहाँ बही 'संत परंपरा' हो,
दिनकर की उर्वशी और प्रसाद की कामायनी हो,
मीरा का अल्हड नृत्य हो,महादेवी की हूक हो,
जहाँ नीरज के गीत और बच्चन की हाला हो,
अभिज्ञान शाकुंतलम सी थोड़ी चूक हो ,
मेघ सा कोई दूत हो, ऐसी कोई समन्वित
'काव्य ग्रंथावली ' चाहिए मुझे.
तलाश रहा हूँ,. आज भी लगातार,
तलाश रहा हूँ,. आज भी लगातार,
ग्रंथालयों में,.........सम्मेलनों में.
सभाओं में, ..नेट पर, ब्लॉग पर...
ढूंढता हूँ उसे, निकटस्थ मित्रों में,.
दूरस्थ मित्रों में, और उनमे भी,
जिन्हें, आखिर शत्रु कहूँ तो कैसे?
क्या उन्हें मुझसे अनुराग नहीं..?
आखिर दिन-रात हमारा ही चिंतन करते हैं.
आखिर दिन-रात हमारा ही चिंतन करते हैं.
फाँसने का कोई न कोई उपक्रम करते रहते हैं.
जनसे ज्यादा तो, वह नहीं सोचता जो
निकट रहता है, अपने को सगा कहता है.
क्या पूरी हो पाएगी मेरी तलाश ?
क्या मिल पायेगी मुझे मेरी 'श्री राधा' ?
हाँ...., शायद ........हाँ, ... परन्तु......,
बनना पडेगा मुझे, '......श्री कृष्ण सा'.
बदलना होगा स्वयं को, सर्वदा के लिए.
अरे! ऐसा तो कभी सोचा ही न था,
देखा ही न था, इधर दृष्टि गयी ही न थी.
सोचमे मात्र से ही दिखने लगी है......,
मेरी 'श्री राधा', ..मेरी 'दिव्य ग्रंथावली'.
क्या मेरे हाथ, उतने लम्बे हो पायेंगे?
क्या आगे बढकर, उन्हें छू पाएंगे?
स्वयं को सिद्ध करना है अब.
हे 'ग्रंथावली !', हे 'श्री राधा !', अब क्या है बाधा?
अब तुम्ही शक्ति दो, निज की अनुरक्ति दो.
तुम्ही कोई युक्ति दो, अमित - अक्षय भक्ति दो.
समर्पित करता हूँ, जो भी हूँ, जैसा भी हूँ,
स्व को....,.....तुम्हारे 'श्री चरणों.....' में............
लेकिन अब पाने की अभीप्सा रही कहाँ?
अब छूने की ललक - अभिलाषा बची कहाँ?
तृप्त हो गया मन, नेत्र पान कर.
संतृप्त हो गया हूँ मैं, पृष्ठ पानकर.
सच है, पूर्णता समर्पण में है, तलाश में नहीं.
संतृप्ति में है, शान्ति में है, किन्तु प्यास में नही.
अब तुम में ही डूब चुका हूँ, गहरायी तक ,
डूबना ....और ...मिट जाना ही अमरता है.
अमरत्व ही शाश्वत सत्य है, परम रहस्य है .
यही प्रत्येक गति का चरम लक्ष्य है.
हे 'ग्रंथावली' ! तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन!!
मुझ अकिंचन को, क्या से क्या बना दिया.
हे 'सावित्री' ! तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन !!
तू ने तो मुझे 'सत्यवान' बना दिया.
हे 'श्री राधे' ! तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन !!
हे 'श्री राधे' ! तुझे नमन, तेरा अभिनन्दन !!
तू ने तो मुझे 'श्याम सा' बना दिया.
वाह वाह ……………………दिव्यता का बोध करा दिया ……………………गज़ब का चिन्तन्……………कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
ReplyDeleteVdana ji Namaskar
ReplyDeleteमेरी पोस्ट "चर्चा मंच" में सम्मिलित करने के लिए साधुवाद.
prashan bhi swam aur uttar bhi swam dia hai apne, easa ker pana itna aasan nahi hota, per kya ye laukik jeevan mai grahay hai!
ReplyDeleteइस रचना का उद्देश्य मानव के मन की उडान, अभिलाषा, इच्छा की उमंग भरी भाग दौड़ के बीच समझौतावादी हो जाने पर भी लक्ष्य की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि अभीष्ट की निश्चित एक परिकल्पना न हो. उस परिकल्पना में डूब जाना . खो जाना , पूर्णतः समर्पित हो जाना ही प्राप्ति है.अथवा प्राप्ति में सहायक है. यह सत्य है. जितना मानव के लिए उतना ही विज्ञानं और प्रज्ञान के लिए भी. सच पूछो तो यह बीज गणित कि विधि है.सम्पूर्ण वैज्ञानिक खोजो का आधार है. .
ReplyDeleteसच है, पूर्णता समर्पण में है, तलाश में नहीं.
ReplyDeleteसंतृप्ति में है, शान्ति में है, किन्तु प्यास में नही. क्या यह कविता किसी भी दृष्टिकोण से कम है? हमे तो नही लगता। अद्भुत प्रस्तुति। बधाई।
Shri S K Gupaji
ReplyDeleteNamaskar thanks for support and creative comments.
See you again