Tuesday, June 27, 2017

हे मानव खड़ा क्या सोचा रहा?

बिना अर्थ के शब्द व्यर्थ  
व्यर्थ है अर्थ बिना काम 
काम व्यर्थ है, धर्म बिना 
धर्म है व्यर्थ बिना मुक्ति,
सभी समाहित एक कर्म मे 
सत्कर्म बिना सभी व्यर्थ।

सत से विलग होते ही यहाँ  
कर्म वही, बन जाता कुकर्म
कुकर्मी का कोई धर्म नहीं है 
कुकर्मी की चाहत केवल अर्थ,
अर्थ, निरंकुश भोग के लिए
भोगी जीवन को कहाँ मुकि?

मुक्ति नहीं तो कैसा वह धर्म 
वह धर्म नहीं, वह घोर अधर्म 
मचाया इस अधर्म ने हाहाकार 
हे मानव खड़ा क्या सोचा रहा 
बोलो,करोगे कब इसपर विचार?

डॉ जयप्रकाश तिवारी  

11 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (29-06-2017) को
    "अनंत का अंत" (चर्चा अंक-2651)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. मेरी रचना को चर्चा मंच मे संकलित करने की लिए बहुत - बहुत आभार ।

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  3. आपकी लिखी रचना  "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 5 जुलाई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. वाह!!!
    अर्थ कर्म धर्म और मुक्ति....
    बहुत सुन्दर...

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  5. वाह ! लाजवाब प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीय ।

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  6. सभी समाहित एक कर्म में...सत्कर्म बिना सब व्यर्थ !
    यही सार है सब शिक्षाओं का। सुंदर रचना आदरणीय ।

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  7. पुरुषार्थ को परिभाषित करती उत्कृष्ट रचना।

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  8. पुरुषार्थ को परिभाषित करती उत्कृष्ट रचना।

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