क्षण क्षण में जो रमा हुआ है
अंक्षर अक्षर जो जुड़ा हुआ है
कण कण में जो खुदा हुआ है ...
सुनो प्यारे ! वही तो 'खुदा' है
जो रमा हुआ है रोम - रोम में
वही तो हमारा आराध्य राम है,
क्यों करते हो सीमित उसको
तुम मंदिर और मस्जिद तक।
उसी की तो यह समस्त सृष्टि है
संकुचित वह नहीं, हमारी दृष्टि है
अंतर क्या इससे पड़ता कोई
संज्ञा यदि उसकी बदलता कोई
यह तो अपनी - अपनी पसंद है
जड़ चेतन सब उसकी पसंद है
यदि नहीं पसंद होता यह उसको
रचता क्यों वह सृष्टि में उसको ?
भेद नहीं है उसकी दृष्टि में
भेद है सारा, अपनी ही दृष्टि में।
इस भेद को ही हमें मिटाना है
जगत को सौन्दर्यमयी बनाना है
'शिवत्व' जगत में लाना है
शुभत्व का भाव जगाना है।
अरे इसी निमित्त आये हैं हम सब
नव वर्ष में संकल्प यही उठाना है
हमें अपना दायित्व निभाना है
बनाया गया है मानव हमको
हमें मानव धर्म निभाना है। .
डॉ जयप्रकाश तिवारी
सुंदर भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteनये वर्ष की शुभकामनायें !