एक आहुति हूँ
एक समिधा हूँ मैं
जीवन के यज्ञ कुण्ड में
तिल तिल कर जलाता हूँ
जितना ही हूँ जलता हूँ
उठती उतनी ही तीव्र सुगंध
देख इसे हर्षित होता हूँ
जब होती दूर भीषण दुर्गन्ध
मेरी इस समिधा में मिश्रित
सत्कर्मों की मर्यादा है
कर्तव्यपरायणता की इसमें
सुगन्धि भरी कुछ ज्यादा है
समर्पण मुझमे कूट कूटकर
भरा है मेरी संस्कृति ने
विकसित हुआ इसी में जीवन
फूला फैला इसी संस्कृति में
पूर्वजों के प्रति अत्यंत विनीत
उन्हीं का तो नवनीत हूँ मैं
बीते वन्दगी में सारा यह जीवन
उनकी छंदों का गीत हूँ मैं
बना इसीलिए आहुति समिधा
इसमें रची बसी है सभी विधा
मुझे इसी में आता है मजा
यही तो मेरी मधुमय हल है
मैंने आहुति बनकर देख लिया
जीवन यह यज्ञ की ज्वाला है.
एक समिधा हूँ मैं
जीवन के यज्ञ कुण्ड में
तिल तिल कर जलाता हूँ
जितना ही हूँ जलता हूँ
उठती उतनी ही तीव्र सुगंध
देख इसे हर्षित होता हूँ
जब होती दूर भीषण दुर्गन्ध
मेरी इस समिधा में मिश्रित
सत्कर्मों की मर्यादा है
कर्तव्यपरायणता की इसमें
सुगन्धि भरी कुछ ज्यादा है
समर्पण मुझमे कूट कूटकर
भरा है मेरी संस्कृति ने
विकसित हुआ इसी में जीवन
फूला फैला इसी संस्कृति में
पूर्वजों के प्रति अत्यंत विनीत
उन्हीं का तो नवनीत हूँ मैं
बीते वन्दगी में सारा यह जीवन
उनकी छंदों का गीत हूँ मैं
बना इसीलिए आहुति समिधा
इसमें रची बसी है सभी विधा
मुझे इसी में आता है मजा
यही तो मेरी मधुमय हल है
मैंने आहुति बनकर देख लिया
जीवन यह यज्ञ की ज्वाला है.
डॉ जयप्रकाश तिवारी
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