Tuesday, August 5, 2014

सोरोगेट-मदर, उर्वशी और मैं


उर्वशी तो नहीं हूँ मैं ...
क्योकि कुशल नृत्यांगना नहीं
उत्तेजक मेरी भावभंगिमा नहीं
मेरे जीवन में कोई इन्द्र नहीं
मरुत, पावक और चन्द्र नहीं
ऐश्वर्य भोग की भूखी नहीं
मुस्कुराने की चाहत में रूठी नहीं...

और पुरुरवा तो तुम भी नहीं
क्योकि मेरी कोई सौतन नहीं
तुझे राज काज की उलझन नहीं
उसके लिए विरक्ति भी नहीं
मेरे लिए अनुरक्ति भी नहीं.

परंतु...परन्तु...न जाने क्यों..
न जाने क्यों, होकर समर्पिता भी
तेरी 'उर-बसी' मैं नहीं बन पाई
छोटी सी चाहत एक नारी की
जाने क्यों तेरी समझ न आई ,
तुम डुबोते रहे मुझे भोगों के नीर में
थी चाहती डूबना नयनों के झील में
अस्तु होकर निराश और हताश
आज और अभी ....इसी ...क्षण
कर रही प्रस्थान तुम्हारे आँगन से
तुम्हारे दिल के खोखले प्रांगन से.

तूने जो कुछ दिया है अब तक
कोई दान, प्रतिदान, दाता बनकर
बदले में उसके सोरोगेट माता बनकर
लो! आज मैंने लौटा दिया हिया तुम्हे
सहस्र गुणित कर तेरा ही क्षुद्र अंश
जिससे चल सके तेरा यशस्वी वंश.
जानती हूँ..... इस देश में ....
यह प्रचलन .. कोई नया नहीं है
विदेश में तो अब शुरू हुआ है यह प्रथा
यहाँ सोरोगेट मदर कभी मेनका बनी थी
कभी उर्वाशी बनी..... और अब मै...

- डॉ. जयप्रकाश तिवारी

2 comments:

  1. गहरी चाप छोड़ती है आपकी रचना ... ये उपहार/त्याग भी ऐसा है जो बस नारी के ही बस में है ...

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