संवेदनाये समीक्षक की जब जोर मारती
मौन के
सारे निहितार्थ खोलती.
मौन भी मुखर तब हो जाता,
और उस शून्य में अनन्त
प्रकट हो ही जाता.
सहस्रदल कमल
खिल
जाता.
प्रेम तत्व के अनुसन्धान में
यह विमर्श और आगे बढ़ता है, गतिशील होता है. अब इस प्रेमानुसंधान में ऐसे भी क्षण
आते हैं जब शोधार्थी यह समझ नहीं पता कि इस प्रेम की सत्यता क्या है? यह शरीरी है
या अशरीरी? यह प्रत्यक्ष है या परोक्ष? इसकी वास्तविकता क्या है? अंत में संवेदी
मन स्वयं से पूछ ही बैठता है कि – ‘तेरा मिलना ख्वाब है या हकीकत / बस बंद पलकों में कैद रहती है तू
/ जुगनू को सितारा समझ भटकता रहा / कस्तूरी है तू या फिर एक छलावा?’. कौन पहचानेगा इसको? अरे वही
जिसने प्रेम किया हो, जिसे प्रेम हुआ हो, जिसने प्रेम को जिया हो. वही पहचानेगा और
वही कह भी सकेगा – ‘तू रो मुझमे, और
अपने अश्क / पलकों से मेरी बहने दे’. यह है अनुराग की वह भाषा जो हम-उम्र या
प्रेमी-प्रेयसी के बीच के संवाद रूप में प्रकट है. इसी प्रकार अनुराग का एक दूसरा
परिदृश्य भी है यहाँ, स्नेह और श्रद्धा के रूप में, माँ से स्नेह-संवाद के रूप में
– ‘माँ / तुमने सब दिया
/ जन्म और सुख के सभी आधार / पर पुत्री को क्यों / न दिया सेवा का अधिकार?’ प्रकारांतर से यह प्रश्न
माँ के माध्यम से समाज से भी हैऔर सामाजिक व्यवस्था से भी. इस प्रकार यह
‘काव्य-संग्रह’ प्रेम प्रसंग के माध्यम से सामाजिक विमर्श के विभिन्न पहलुओं का
सूक्ष्म संस्पर्श करता है, अवसर और अवकाश ढूँढता है. परिमार्जन और शोधन के लिए
चिह्नित करता है, ऐसा कोई भी प्रयास रचनात्मकता की श्रेणी में ही रखा जायेगा. अभी
हल ही में पुत्री द्वारा मुखाग्नि दिए जाने का कम से कम दो उदहारण समाचार पत्रों
की सुर्ख़ियों में था जिसे मने रूचि लेकर पढ़ा भी था..
प्रेम तत्व के इस अन्वेषण की
एक विशेषता और भी है. यहाँ प्रेमी युगल के मध्य संबोधन को लेकर एक मनोवैज्ञानिक
विश्लेषण भी है जहाँ ‘आप’, ‘तुम’ और ‘तू’ के प्रयोग को लेकर एक औचित्यपूर्ण विवेचन
देखने को मिलता है. और यहाँ अंततः छुपा हुआ अपना स्व, अपना अहम, स्वाभिमान जाग्रत
हो उठा है – ‘मैं तुम्हे और तुम
मुझे / मेरे ही नाम से पुकारेंगे / अपना – अपना वजूद लिए हम / एक दूसरे के / उम्र
भर रहेंगे’. और
जहाँ मान - स्वाभिमान – अभिमान –
गुमान प्रकट हो उठे, वहाँ प्रेम
कहाँ? इसलिए सावधानी की आवश्यकता है यहाँ. लेकिन प्रेम में सावधानी हो भी नहीं
सकती. जहाँ प्रेम में सुधि-बुद्धि सब खो जाय, वहाँ सावधानी के लिए अवकाश भी कहाँ?
इसलिए प्रेम के सन्दर्भ में उसकी व्याख्या में प्रयुक्त शब्दों के अभिधात्मक
अर्थों तक ही पाठक या समीक्षक को उलझ कर नहीं रह जाना चाहिए. लक्षणात्मक और
व्यंजनात्मक शब्द-शक्तियों की शरण में भी अवश्य ही जाना चाहिए. शब्दों का अपना
महत्व तो है लेकिन एक सीमा तक ही, उसके आगे नहीं. जबकि प्रेम की गति संकेत, प्रतीक
और मौन तक है. इस युवा पीढ़ी को इसका संज्ञान है, तभी तो वे कह सके हैं – ‘शब्द मुखर हो जाते हैं / किन्तु / मोल उन शब्दों का नहीं /
जो प्रभावित करने की आकांक्षा में / निकले थे / शब्दों का जाल तो प्रपंच भी हो
सकता है / मोल तो स्वयं निष्ठां / स्वयं की आस्थाओं का है’. यह निष्ठा और आस्था की चरमावस्था ही तो
है कि प्रेयसी ने अपने साजन में ही प्रभु का साक्षात्कार कर लिया. यह भाव
प्रवणता-सघनता नहीं तो और क्या है? यहाँ
अनुराग का वह भाव प्रकट हुआ है जिसे भक्ति की संज्ञा दी गई है. अब देखिये न नायिका
का विह्वल सा उत्तर – ‘तुम बिलकुल / कृष्ण का
रूप लगते हो सजना / अब तुम ही कहो / मुझे किसी भगवान की कया जरूरत / मैं तुमको जो
देख लेती हूँ / आँख खुलते ही’. लेकिन यह तो आदर्श की चरम स्थिति है और
वर्तमान में वह आदर्श कहीं नजर नहीं आता. इसलिए वर्तमान में जीने वाला प्रेमी तुरत
ही इसका प्रतिवाद करता है और छोड़ जाता है एक अत्यंत महार्व्पूर्ण प्रश्न – ‘हमें तो आज में जीना है / क्योकि आज जो है वही सत्य है /
और सत्य ही शिव है / तो फिर शिव की तरह / सुन्दर क्यों नहीं होता / शिव, जिनका न
कोई आदि है / न अंत / विल्कुल प्रेम की तरह / तो फिर सत्य क्यों / प्रेम की तरह
कोमल नहीं होता?
क्रमशः
डॉ. जय प्रकाश तिवारी
संपर्क – ९४५०८०२२४०
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कस्तूरी" पुस्तक की लाजबाब सुंदर समीक्षा के लिये बहुत२ बधाई,,,,,
ReplyDeleteमेरे पोस्ट में आकर उत्साहित करने के लिये आभार,,,,,,,
धन्यवाद सर,स्वागत है इस ब्लोग्पर हमेशा की तरह. आभार पधारने और उत्साह वर्धन के लिए.
ReplyDeleteaapka mehnat dikhta hai sir..:)
ReplyDeletedhanyawad...
धन्यवाद इस एहसास के लिए. यह आपसे वडा था , पूरा तो करना ही था उसे. आंकलन आप लोगों का. हाँ, केवल प्रशंशा ही मय करिये, कोई कमी याँ सुझाव हो तो उसे भी बटन चाहिए. संकोच की इसमें कोई बात नहीं हैं. अब आगे का क्या कोई दूसरा प्रोजेक्ट है?
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