प्रेम है शाश्वत एक तरंग, निर्मल - स्वच्छ धवल
है रंग
सृष्टि पूर्व उपजा यह प्रेम, है सृष्टि का करण
यही प्रेम.
प्रकृति प्रेम में ही अनुरक्त, लेकिन प्रकृति
प्रेम अवरक्त.
प्रकृति नटी,पुरुष निर्लिप्त, इसके गति में नहीं
सश्लिष्ट.
यह सच है, प्यार जब भी अपने सर्वोच्च शिखर का संश्पर्श करता
है, उसकी अभिव्यक्ति लडखडा ही जाती है. शब्दों के बोल छोटे पड जाते है, उपमाएं और
उपमान अपना दामन छुड़ाने लगते है, और ऐसी स्थिति में प्राप्त होते हैं- कुछ संकेत,
कुछ विम्ब, कुछ प्रतीक. काव्य-संग्रह ‘कस्तूरी’ में प्यार का यह शिखर विन्दु भी है
कुछ इस रूप में – ‘तुम जब भी छूते हो, मैं बेहोश हो
जाती हूँ / फिर तुम छोकर मुझे होश में लाते हो / पास आ तो जाऊं मैं भी तुम्हारे
लेकिन / मैं भी जल जाती हूँ / और तुम भी झुलस जाते हो / कहते हो खुद को मासूम / और
राज बन मेरे दिल में उतर जाते हो’. याद है मुझे, ऐसे ही एक प्रश्न कि प्यार
क्या है? इसके उत्तर में मनीषी चिन्तक डॉ. राम गोपाल चतुर्वेदी जी का उत्तर था– “प्रेम का पुरस्कार ईश्वर को भक्ति मार्गियों ने दिया था.
यह भक्ति मार्ग सूफीवाद के समकक्ष है और सूफीवाद में खुदा और उसके मुरीदों के मध्य
आशिक –माशूक का सम्बन्ध माना गया है. इश्क का ही हिंदी पर्याय प्रेम है और इश्क या
प्रेम में रति भाव का प्राधान्य रहता है. शास्त्रों में रति को उद्गीथ कि संज्ञा
दी गई है. छान्दोग्य उपनिषद में एक वामदेव्य साम का उल्लेख है जिसमे रति सुख को
उद्गीथ माना गया है. उद्गीथ और आनंद में कोई तात्विक भेद नहीं है. उद्गीथ
प्रक्रिया है और आनंद उसका परिचय”. कस्तूरी के रचनाकार भी इस उद्गीथ की
प्रक्रिया से कई-कई बार गुजरते हैं. उनके मन में तरह-तरह के भाव उठते हैं, तरंगें
हिलोरें मारती हैं और ये चिन्तक उनका रसास्वादन और वर्णन कर आनंदित होते है. मन
में उठने वालों भाव के रूप-स्वरुप अलग-अलग है. देवीदुर्गा की आराधना - वंदना में
इन विविध मनोभावों का एक विषद परिचय मिलता है. प्रसंगवश उनका उल्लेख शायद हमारी
राह को, परिचर्चा को और आसान बना दे. इससे विषय- -सामग्री और विषय-वस्तु को समझने
में भी सरलता ही होगी. ये मनोभाव हैं– बुद्धि, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति,
लज्जा, शांति, श्रद्धा, काँति लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृत्व और
भांति.
प्रेम भी एक उपासना है इनमे से कई मनोभावों का प्रभावी-चित्रण
और प्रभावी अभिव्यक्ति हुआ है. आदर्श की उपासना, चरम और परम की उपासना. प्रेमी की
यह उपासन ही जब अभिव्यक्ति का विषय बनती है तो काव्य और साहित्य का सृजन होता है. इस
सृजन में भावों को उभारने वाले कारक और साधन, आलंबन या उद्दीपन कहे जाते हैं. यह
आलंबन भाव देखकर, सुनकर याँ अनुमान के आधार भी उत्पन्न होते हैं. यह लौकिक भी हो
सकती है और पारलौकिक भी. भावनाओं का प्रस्तुतीकरण ही साहित्य है और साहित्य से
वैयक्तिक मन और समाज दोनों भाव विभोर हो उठते हैं. कस्तूरी को पढकर ऐसे ही भाव उठ
रहे है. भाष-शैली की दृष्टि से कहीं-कहीं परिष्कार की आवश्यकता है लेकिन भाव सम्प्रेषण
में बाधक नहीं है. सृजनात्मक भाव श्रेष्ठ समाज की संरचना करता है, आत्म-समीक्षा के
लिए प्रेरित करता है. इसलिए कहना चैये साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं, प्रेरक भी
है. इस प्रकार प्रेरक साहित्यकार की जिम्मेदार और भी बढ़ जाती है. यदि और खुलकर कहा
जाय तो सहिय्कार समाज को बनाने, सवारने और मिटने की दावा है. यह विज्ञान रूप में
सिद्दांत तथा संतरूप में दुआ है. यह समाज ही है, आज का समाज भौतिकता का समज,
विज्ञान का समाज, प्रौद्योगिकी का समाज जिसने छीन लिया है माँ प्रकृति के मुह से मृदुलता
की लोरी भी, अपने दंभ में- ‘लोरी छीनकर / तुमने ही
उसे काली का रूप दिया है / और इस रूप में वह संहार ही करेगी / सिर्फ संहार’.
लेकिन क्यों? क्योकि इस विज्ञान और प्रौद्योगिकी मिलकर माँ प्रकृति का दोहन-शोषण
निर्दयता पूर्वक कर रहे हैं.
विज्ञान है परिकल्पनाओं का परीक्षण, उनका गणितीय मान, और तकनीक
है विज्ञान का वह लाडल-पुत्र जिसके एक हाथ में है ‘सृजन’ और दूसरे हाथ में है
‘ध्वंश’ की चावी. इस तकनीक के ‘ट्रिगर’ और ‘बटन’ पर शासन और वर्चस्व है, संकल्पना
और परिकल्पना रुपी उँगलियों का. इस परिकल्पना के मूल में है यह विचार कि वह भाई को
समझता क्या है- एक ‘मित्र’ अथवा ‘शत्रु’? अब विज्ञान स्वयं तो है बूढा-लाचार, उसने
थमा दिया है अपनी मशाल बन्दर के हाथ मे. यह बन्दर ही है जिसका अपना कोई निजी घर-द्वार
नहीं होता, यह जब भी जलाएगा, होगा वह किसी दूसरे का छप्पर. मेहनत और खून-पसीने से
छाई गई एक कुटिया. तकनीक अश्वत्थामा रुपी विज्ञान का वह अस्त्र है जिसे छोड़ा तो जा
सकता है, परन्तु उसके द्वारा रोका नहीं जा सकता. तो कौन समझायेगा विज्ञान के इस
बिगडैल पुत्र को? वही श्रीकृष्ण जिन्होंने मोड दिया था अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र
को. आज भी वही मोड़ेगा, विज्ञान के इस बिगडैल पुत्र के अस्त्र को. इसलिए उन्ही
श्रीकृष्ण को एकबार पुनः याद किया गया है इस ‘कस्तूरी’ में – ‘युद्ध भूमि में उतरना था / विस्वास करो या न करो / सारथि
श्रीकृष्ण बने / दिया उपदेश / क्या है छल! क्या है भ्रम! / विश्वास भरने को नरक का
द्वार भी दिखाया / जिन्हें महारथी माना था / उनका असली रूप दिखया’. जब असली
रूप दिख गया तो ये चिन्तक शांत बैठने वाले ही कब थे, जुट गए समाज सृजन के कार्य
में अपने-अपने हुनर के साथ. शय्स संवेदी चिन्तक उस तकनीक से ही पूछता है – ‘ऐ तुम! / ‘मैं’ बनकर तुम्हे जो मिला / क्या उसे आज उपलब्धि
मानते हो / या अब एक ‘मैं’ ही रह गया तुम्हारे पास? / और हम की तलाश में / तुम खुद
में प्रलाप करते हो?”.
इस प्रकार ‘कस्तूरी’ के संवेदी चिंतकों ने काल को, काल की गति
को पहचान लिया है. प्रेम करने वाला डरता तो नहीं, लेकिन संवेदी होने के नाते अपनी
अनुभूति को अभिव्यक्त तो करता ही है. मीठे अनुभव भले ही विस्मृत हो जांय, खट्टे और
तीक्ष्ण अनुभूति कभी भूलती नहीं. वह लेखनी के संस्पर्श को छटपटाती है और जब भी
लेखनी का साथ पाती है, वह रंग जाती है पूरे पृष्ठ को, पृष्ठों को, अपनी वेदना से,
अपनी पीड़ा से.- ‘कोई मुझसे प्रेम नहीं करता / सब
मुझसे बचते फिरते रहते हैं / सुनिए मेरा नाम है बुरा वक्त / ... समय है बड़ा बलवान
/ कि इस किस्मत के आगे / जीतते – जीतते क्यों हर जाता है इंसान / क्यों भाग्य का
खेल / ९९ पर खत्म होकर फिर शून्य(०) से शुरू हो जाता है?’. शून्य एक अज्ञात
राशि है, अंजान संख्या है. इस प्रकार जीवन के विभिन्न थपेडों को झेलते हुये युवा
अन्वेषी मन एक रहस्य कि चादर ओढ़ लेते है, रहस्यवाद के क्षेत्र में पहुच जाते हैं,
अंतर्मुखी हो दार्शनिकता की चादर ओढ़ लेते हैं. और पुष्टि करते हैं कविवर पन्त के
इस कथन की –“वियोगी होगा पहला कवी आह से उपजा होगा गान, निकल कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अंजान”. लेकिन दार्शनिक की कविता अंजन कब तक रहती? वह ढूढ़ ही लेता है
इस शून्य का मूल्य. इस शून्य का मान – ‘शून्य, शून्य
और सिर्फ शून्य / पता नहीं फिर भी लगता है / कुछ बचता है कहीं शून्य से परे /
स्वयं का बोध / या कोई कड़ी / अगली सृष्टि की / ... कुछ ऐसा है जो / बचता है शून्य
के बाद भी’. बिलकुल सही बात है वंदना जी! ‘शून्य’ जो शून्य तो है ही,
प्रकारांतर से वही पूर्ण भी है. यही पूर्णता
आवर्ती गति करती रहती है- धनात्मक आवर्त सृष्टि है और ऋणात्मक आवर्त प्रलय.
दूसरे शब्दों में धनात्मक आवर्त पूर्णता है और ऋणात्मक आवर्त शून्यता. और यह शोध
किया जा चुका है कि पूर्ण में से पूर्ण घटने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है.
शास्त्र वचन है - पूर्णस्य पूर्णम आदाय पूर्ण मेव अवशिष्यते’. इस तरह इस टीम ने एक
पूरी यात्रा कर ली है, शून्य से अनन्त और अनन्त से शून्य तक की.
यह तो हुई भावनात्मक यात्रा, अध्यात्मिक यात्रा. यह लौकिक
यात्रा वहाँ जाकर पूरी होती है जहाँ जब पहले प्रश्न, परम जिज्ञासा का उत्तर मिलता
है. प्रश्न था - जिंदगी के सफर में जो खुशियों का
नगर है, वह कहाँ है..? वह कहाँ है...? उत्तर मिला– वह यहीं है.., यहीं है.., यहीं
है... यहीं... जहाँ.. तुम रहते हो! जहाँ तुम्हारा जन्म हुआ है... जहाँ की मिटटी
में खेल कर पाले-बढे हो.., जहाँ का अन्न-जल ग्रहण कर तुम प्रश्न करने लायक बने हो!
तुम्हारी प्यारी जन्म-भूमि. तुम्हारा अपना प्यारा देश- ‘भारत वर्ष’.
संवेदी मन निष्कर्ष प्राप्त कर बोल ही तो उठता है – ‘नहीं
चाहता विश्व भ्रमण / भातर दर्शन की आशा है / मैं गली – गली में रमण करूं / मन जनम –जनम
का प्यासा है / .. हर नगर राज्य मैं देख सकूँ / अपना समाज मैं देख सकूं / कल
विश्व-गुरु कहलाया क्यों / वो नीव आज मैं देख सकूं’. इस प्रकार इस
‘कस्तूरी’ की खोज में यह युवा रीम निकल पड़ी थी, भटक रही थी, वह कस्तूरी मिली उनके अपने ही घर में, उनकी ही नाभि में. इस
प्रकार इस काव्य संग्रह का नाम ‘कस्तूरी’ रखा जाना औचित्य पूर्ण है. यह सर्वांश में अपने नाम को सार्थक करती है.
डॉ.
जय प्रकाश तिवारी
संपर्क-
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dil se dhanyawad sir...:)
ReplyDeleteकस्तूरी की पूरी टीम की ओर से आपका आभार ....
ReplyDeleteमुकेश जी, अंजू जी!
ReplyDeleteआभार तो आप लोगों का. कस्तूरी को जिस आग्रह और स्नेह से मुकेश मुकेश जी और शैलेश जी ने सौंपा था, यह समीक्षा उसी का परिणाम है. निश्चित रूप से इस समीक्षा के माध्यम से मैंने भी बहुत कुछ प्राप्त किया है. यदि रचनाकारों के माध्यम से कृतियाँ प्रकाश में न आई होतीं तो यह संभव नहीं था. मैंने तो केवल उस विषय वस्तु जैसा समझा वैसा लिख दिया. प्रेरक तो रचनाकार और प्रकाशक हैं. आप लोगों के सत्प्रयास को बधाई . मेरा स्नेह और समर्थन सतत साथ रहेगा..
वाह क्या बात है बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकृपया इसे भी देखें
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