Wednesday, August 1, 2012

शब्द सृजन की वेला


होती है जब मन में हलचल
हिलोर तरंग जब लेती है.
भाषा के रूप में बाहर आ वह
लिपि के रूप झलकती है.

तरंगे कुछ फंस भवर जाल में
मन के अन्दर ही घुमड़ती हैं,
जो चंचला हैं, प्रतीक रूप में
अंगों से भी, वे छलकती हैं.

हैं सभी रूप, कविता के ये
यह जीवन भी एक कविता है,
इस धरा पर जितनी कवितायें
सर्जक उसका यह सविता है.

सविता का रूप प्रखर तेजस्वी
रश्मियाँ हैं उसकी बड़ी ऊर्जस्वी,
उलटी बात वह नहीं मानता
जगत को उसका मजा चखाता  .

ऐसे ही बहती है यह कविता
यह आह - वाह का संगम है,
पढ़लो रचलो चाहे जो कविता
क्या गम? जब है यह सविता.


                                      डॉ. जयप्रकाश तिवारी 

8 comments:

  1. कवितायें यूँ छलकती है !
    सुन्दर!

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  2. ऐसे ही बहती है यह कविता
    यह आह - वाह का संगम है,
    पढ़लो रचलो चाहे जो कविता
    क्या गम? जब है यह सविता.

    सचमुच कवि को एक सुविधा है जो भी सुख-दुःख आये झट से कविता रच ले और आजाद हो जाये..

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  3. उत्कृष्ट प्रस्तुति गुरूवार के चर्चा मंच पर ।।

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  4. हैं सभी रूप, कविता के ये
    यह जीवन भी एक कविता है,
    इस धरा पर जितनी कवितायें
    सर्जक उसका यह सविता है.,,,

    बहुत बढ़िया कविता,,,,,बधाई,,तिवारी जी,,,,,
    रक्षाबँधन की हार्दिक शुभकामनाए,,,
    RECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,

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  5. बहुत-बहुत सुन्दर ऐसे ही कविता जन्म लेती है...

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  6. तरंगे कुछ फंस भवर जाल में
    मन के अन्दर ही घुमड़ती हैं,


    सुंदर !

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  7. बहुत सुन्दर.... कविता यूँ ही छलकति है..

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  8. सही में जीवन एक कविता ही है !
    सादर !

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