Monday, May 14, 2012


गुरु पूर्णिमा पर्व




जिसने मुझको नाम दिया है,
बहुत बड़ा सम्मान दिया है.
है जो मेरे व्यक्तित्व का सर्जक,
सब कुछ मुझ पर वार दिया है.
उसी का तन मन अर्पित उसको
श्रद्धा सुमन समर्पित है उसको.
ये सब भी, अब कहाँ है मेरा.
सर्वस उसका नहीं कुछ मेरा.

उस सु-नामी का नाम मैं क्यों लूँ?
धो डाला कलुष कषाय जो मैला.
उसे अमूर्त-अनाम-अरूप रहने दो
क्यों करूँ विराट का रूप मैं बौना.

4 comments:

  1. उसी का तन मन अर्पित उसको
    श्रद्धा सुमन समर्पित है उसको.
    ये सब भी, अब कहाँ है मेरा.
    सर्वस उसका नहीं कुछ मेरा.,,,,,

    बिना गुरु के ज्ञान नही मिलता,....

    MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...

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  2. मर्मस्परसी कहीं अपना सा मखमली स्पंदन ,ठंढी मलय सी अविरल अग्रसर संवेदना श्री गुरु कि ही हो सकती है ... जो आपके लेखन को प्रतिष्ठित कर रही है ...अव्यक्त को मूर्त करती रचना .......साभार डॉ साहब .

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  3. उसी का तन मन अर्पित उसको
    श्रद्धा सुमन समर्पित है उसको.
    ये सब भी, अब कहाँ है मेरा.
    सर्वस उसका नहीं कुछ मेरा...

    तेरा तुझको अर्पण ... क्या लागे मेरा ... बहुत ही सुन्दर बोल हैं आपके ...

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