ओ मेरी अपराजिता... !
तू है अगर अपराजिता,
तो रहेगी तू अपराजिता.
मैंने कब चाहा,
तुझे करना पराजित?
हार की यह हार
है तुझे सादर समर्पित,
हार पहनोगी तुम,
है मेरी भी यही जिद.
देखा होगा तुमने
बहत से जिद्दियों को.
दीवानगी की
जिद भी देखी कभी?
जिंदगी गिरवी मेरी
यह जिद के नाम.
देखता हूँ कौन देता
है मेरा अब साथ?
तू अगर आयी तो
दूंगा तुझे फिर से जिता.
ओ मेरी अपराजिता.... !
ओ मेरी अपराजिता.... !
थी कल भी तू अपराजिता
हो आज भी अपराजिता.
रहोगी कल भी तू अपराजिता.
ओ मेरी अपराजिता.... !
ओ मेरी अपराजिता..... !
बढ़िया आवाहन ||
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें ||
जिंदगी गिरवी मेरी
ReplyDeleteयह जिद के नाम.
देखता हूँ कौन देता
है मेरा अब साथ?
तू अगर आयी तो
दूंगा तुझे फिर से जिता.
ओ मेरी अपराजिता.... !
वाह...बहुत अच्छी प्रस्तुति,....
RECENT POST....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....
अपराजिता रहेगी अपराजिता ...
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना के लिए बधाई.. भाव अपराजित ठहरा ही देता है..वाह...बहुत अच्छी प्रस्तुति,....
ReplyDeleteThanks fir kind visit and creative comments.
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