युद्धिष्ठिर तो धर्म धुरंधर थे
गदाधर भीम थे बलशाली,
पर गीताज्ञान अर्जुन को क्यों
पूछे यह प्रश्न मन का माली.
ज्ञान उसी को मिलता है
जो होता है, उसका अधिकारी,
उसको भी सहज ही मिल जाता
जो 'वरण' यथेष्ट को करता है.
कन्या करती वरण है वर को
करता है शिष्य गुरु को वरण,
वारनेय अपना धर्म निभाता
देता है उसको उर में शरण.
योगी पाते जिसे कठिन योग से
तपसी जिसे कठिन तपस्या से,
पाता जिसे पुरुषार्थी कर्मयोग से
शरणागत पाता उसे वरेण्यं से.
अर्जुन ने मान श्रुति का निर्देश
किया था वरण, सखा कृष्ण को
ठुकराके धनबल जनबल सैन्यबल
वारनेय धर्म ही हुआ प्रस्फुटित
रणक्षेत्र मध्य वहाँ, कुरुक्षेत्र के.
प्रभु के चयन पर प्रश्न ही कैसा ?
ReplyDeleteरश्मि जी,
Deleteयह मानव मन की संवेदन और जिज्ञासा है जो दार्शनिक और वैगानिक बन कर रहस्यों को समझना चाहता है. इसमें रचना में भी केवल एक प्रयास है, एक तथ्यपर संभावना को तलाश की गयी है. हो सकता इसी बहाने और भी सम्भावानें सामने आवें. बात जहां तक प्रभु के चयन पर प्रश्न का है तो वह भी स्व निर्मित संविधान से आबद्ध है और सामान्य परिस्थिति उसे तोड़ता भी नहीं. आभार इस नवीन दृष्टि के लिए.
योगी पाते जिसे कठिन योग से
ReplyDeleteतपसी जिसे कठिन तपस्या से,
पाता जिसे पुरुषार्थी कर्मयोग से
शरणागत पाता उसे वरेण्यं से.
बहुत सुंदर प्रस्तुति,..बेहतरीन पोस्ट
MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
धन्यवाद सर!
Deleteआभार आपका.
सुंदर प्रस्तुति, आभार
ReplyDeleteThanks.
Deleteउत्तम अधिकारी को ही अमृत दिया जाता है।
ReplyDeleteThanks for visit and comments.
DeleteAbhar.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति..
ReplyDeleteयोगी पाते जिसे कठिन योग से
ReplyDeleteतपसी जिसे कठिन तपस्या से,
पाता जिसे पुरुषार्थी कर्मयोग से
शरणागत पाता उसे वरेण्यं से.
उत्तम भाव लिए ... श्रेष्ठ लेखन ...आभार ।
शोभा चर्चा-मंच की, बढ़ा रहे हैं आप |
ReplyDeleteप्रस्तुति अपनी देखिये, करे संग आलाप ||
मंगलवारीय चर्चामंच ||
charchamanch.blogspot.com
तपसी जिसे कठिन तपस्या से,
ReplyDeleteपाता जिसे पुरुषार्थी कर्मयोग से
शरणागत पाता उसे वरेण्यं से.
उत्कृष्ट, उर्वर विचारों का संयोजन ,पुरातन को नवीनता के साथ, वर्तमान की विभीषिका को संज्ञानित करने का प्रयास, उत्तम है डॉ साहब . शुभकामनायें