चिन्तक और कवि,
मत रचे कोई मन में
मनमोहक सी छवि.
मैं तो केवल पथिक तत्त्व का,
वही साध्य, वही लक्ष्य है मेरा.
धूल-धूसरित अब गात है मेरा.
साधन है बनाया प्रेम मारग को
चलता हूँ, फिर गिरता हूँ
यहाँ बारम्बार फिसलता हूँ.
कितना निर्मल, शांत, सरल पथ,
कैसे बढे कलुषित मन का रथ?
उठ पुनः - पुनः डग भरता हूँ,
चलने का प्रयास ही करता हूँ.
लम्बे - लम्बे डग हैं उनके
पथ बना गए जो चल कर इसपर.
उनका साथ मै दे नहीं पाता.
छोटा सा मार्ग एक स्वयं बनाता.
यही बस एक पहचान है मेरा.
कैसे कहू 'तत्त्व प्रेमी' नाम मेरा?
जब भी लगी जीवन में बाजी
हर बाजी मैं अब तक हारा.
कुछ बजी मै सचमुच हारा,
बहुत कुछ जानबूझ कर हारा.
इस हार को 'हार' बना रखा है,
संवेदना यही अब पाल रखा है.
जग हारा-हरा मुझको खुश होता,
मै हार मान कर खुश हो लेता.
यह अपनी-अपनी ख़ुशी की बात,
क्यों करूँ किसी मन पर आघात?
वह मन भी आखिर अपना ही तो है,
वह तन भी आखिर अपना ही तो है.
अब मेरे - तेरे की बात ही कहाँ ?
जो जैसा भी है, अपना ही तो है.
बहुत सुन्दर सार्थक रचना| धन्यवाद||
ReplyDeleteजादू -टोने
ReplyDeleteतन्त्र -मंत्र सब
करके हार गये ,
और अधिक
पीड़ादायक
निकले बेताल नये ,
इन्द्रप्रस्थ के
रहें प्रजाजन
या वैशाली के |
bahut hi badhiyaa
बहुत सुन्दर , सादर
ReplyDeleteजो हार में जीत की झलक देख लेता है वह अन्ततः जीत जाता है...
ReplyDeletehttp://urvija.parikalpnaa.com/2011/10/blog-post_10.html
ReplyDeleteकितना निर्मल, शांत, सरल पथ,
ReplyDeleteकैसे बढे कलुषित मन का रथ?
बहुत सटीक अभिव्यक्ति..जब अपने पराये का अंतर लुप्त हो जाता है तो फिर हार का प्रश्न ही नहीं उठता...आभार
Thanks,to all participants for their kind visit and valuable comments. Grateful.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी और सकारात्मक कविता, बधाई !
ReplyDeleteThanks.
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