कूक रही है कोयक काली,
संध्या की रक्तिम ये लाली.
ऊपर नभ में घटा घिरी है,
नीचे फैली है - हरियाली.
देखो प्रकृति का खेल निराली,
सुरभित मंद पवन मतवाली.
छाई कपोल में देखो लाली,
तुम छिपे कहाँ हो बनमाली?
कूक पिक की हो गयी बंद,
मिल गया उसे पिया का संग.
जाने क्यों भाग्य उसकी है फूटी?
चकवी की आस आज फिर टूटी.
देखकर तप-त्याग चिरैया की,
तरु ने पत्ते भी त्याग दिया.
लेकिन वह कितना है निष्ठुर,
अब तक न उसे है याद किया.
सुनेगा कौन उसकी फ़रियाद?
न जाने कब से कर रही है याद?
कब छातेगी यह रजनी की बेला?
कब आएगा उज्ज्वल प्रात सवेरा?
प्यारे से शब्द है।
ReplyDeleteसुरीले सुन्दर शब्द और सोच
ReplyDeleteदेखकर तप-त्याग चिरैया की,
ReplyDeleteतरु ने पत्ते भी त्याग दिया.
लेकिन वह कितना है निष्ठुर,
अब तक न उसे है याद किया....aah chakvi
कब छातेगी यह रजनी की बेला?
ReplyDeleteकब आएगा उज्ज्वल प्रात सवेरा?
मंगल कामना एक निर्मल मन ही कर सके है , वह प्रतीक्षा भी करता है तो शुभ का, शुभ के लिए / तो हम ,
एक विद्वत ,शील ,शुभेक्षु हृदय के श्वामी को सम्मान देने के सिवा नमन ही कर सकते हैं , ...../
प्रकृति के अन - बन निराले !
ReplyDeleteसभी पधारनेवाले सहृदय पाठकों और समीक्षकों का हार्दिक आभार. कष्ट तो कोई न कोई सभी के जीवन में है. करना रो यह चाहिए की हमारे अगले कदम से किसी को कष्ट न हो. लेकिन यह बड़ी बात है, इस परिपुष्ट करने के लिए आवश्यक है की पहले अपना ही नहीं दूसरों के भी कष्टों को समझा जाय. दूर किया जाय अथवा दूरकरने की कामना की जाय.
ReplyDeleteएक बार पुनः सभी का इस ब्लॉग पर अभिनन्दन और स्वागत.
शब्द शब्द ....रस में डूबा ....
ReplyDeleteanu
इस ब्लॉग पर अभिनन्दन और स्वागत.
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