यह श्वेत पंछी - 'बगुला',
जो होता है प्रतीत-'हंस के कुल का'.
उसी प्रतीति के कारण खा जातीं हैं
धोखा और मात अपने जीवन से -
ये जल जीव और 'मछलियाँ'.
जिस प्रकार बगुले के
स्वच्छ - धवल तन में,
छिपा है -'कलुषित-कुटिल मन',
ठीक उसी तरह स्वच्छ खादी में,
लिपटे हैं आज,'कलुषित-कुटिल तन'.
करते हैं दोनों एक जैसे काम,
बगुला करता है हंस को बदनाम.
और इंसान करता है -
उस पवित्र वस्त्र को बदनाम,
जिसके बारे में धारणा थी -
यह मात्र एक वस्त्र नहीं विचार है,
इसमें लिपटा एक मूर्त सदाचार है.
अपने रंग चयन पर ,
आज सदाचार पछता रहा है और
वह इंसान होठों पर कुटिल हास्य विखेरे,
निर्लज्ज सा खडा देखो मुस्करा रहा है.
अपने रंग चयन पर ,
ReplyDeleteआज सदाचार पछता रहा है और
वह इंसान होठों पर कुटिल हास्य विखेरे,
निर्लज्ज सा खडा देखो मुस्करा रहा है.
एक कटु सत्य का बहुत सार्थक और भावपूर्ण चित्रण..आभार
शर्माजी,
ReplyDeleteपधारने और सर्जनात्मक टिप्पणी, उत्साहवर्द्धन हेतु आभार.
करते हैं दोनों एक जैसे काम,
ReplyDeleteबगुला करता है हंस को बदनाम.
और इंसान करता है -
उस पवित्र वस्त्र को बदनाम,
बहुत सटीक विचार ..अच्छी प्रस्तुति
वाह आपने हमारे मन की बात को काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी है। बड़े निर्लज्ज हो गए हैं ये लोग।
ReplyDeleteआदरणीय जे पी तिवारी जी
ReplyDeleteसादर प्रणाम !
पहले भी आया हूं आपके यहां...
आज भी अच्छी रचना पढ़ने को मिली , आभार !
जिस प्रकार बगुले के
स्वच्छ - धवल तन में,
छिपा है -'कलुषित-कुटिल मन',
ठीक उसी तरह स्वच्छ खादी में,
लिपटे हैं आज,'कलुषित-कुटिल तन'.
दोहरे चरित्र वाले नेताओं को अच्छा तमाचा लगाया है आपने ...
बहुत बहुत बधाई !
मैंने भी लिखा है बहुत ...
कुछ पंक्तियां आपके लिए -
घाट - घाट पर घाघ मिलेंगे !
डाल - डाल पर काग मिलेंगे !
आज हिंद की पेशानी पर
कई बदनुमा दाग़ मिलेंगे !
मौज मनाए भ्रष्टाचारी !
न्याय व्यवस्था है गांधारी !
लोकतंत्र के नाम पॅ
तानाशाही सहने की लाचारी !
हत्यारे नेता बन बैठे !
नाकारे नेता बन बैठे !
मुफ़्त का खाने की आदत थी
वे सारे नेता बन बैठे !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सही
ReplyDeleteआदरणीय संगीता जी, मनोज जी,
ReplyDelete,, राजेंद्र जी, चंद्रभूषण मिश्र जी,
आप सभी का इस ब्लॉग पर बहुत-बहुत स्वागत, सृजनात्मक एवं उत्साहवर्द्धन हेतु आभार.
@ मनोज जी, यह आपके मन की ही बात है जानकर और भी ख़ुशी हुई, यह तो सबके मन की बात है जो अव्यवस्था के शिकार हैं या शिकार होते देख्राहे हैं. अंतर्मन की संवेदना को लेखनी शब्दों में ढाल ही देती है, किसी न किसी रूप में.आभार..
@ राजेन्द्र जी, आपकी टिप्पणी तो गजब की है. अनोखा व्यग्य, मारक स्वरुप है उसमे. लेकिन जिसकी चर्चा की है आपने वे तो चिकने घड़े हैं, फिर भी कुछ तो सोचेंगे ही. अब वास्तविकता जन समुदाय के समक्ष आना ही चाहिए. आखिर नेता वे जनता के कारण ही तो बने हैं, जनता को यह अधिकार है सत्य जानने का. रचना बहुत पसंद आयी.अपनी तीखे तेवर के कारण. आभार....सोचता हूँ सभी ब्लोगरों का आह्वान किया जाय, एक जंग छेदी जाय, कुव्यवाब्था, शोषण, अनाचार और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों के खिलाफ.....
आज के राजनीतिक समाज का सही चित्रण करती कविता !
ReplyDeleteThanks for your kind visit and comments pl.
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