Saturday, June 18, 2011

फूल और दीपक

मंदिर में देखो भक्तों ने नैवेद्य चढ़ाये फूल चढ़ाये दीप जलाये.
अपने सुगंध की मादकता में, हर्षित सब फूल बहुत इठलाये.

मंद पवन के झोंकों से, सुगंध यह दूर दूर तक फैला.
लेकिन जब हुयी हवा प्रतिकूल, सारा सुगन्ध उड़ चला.

तब भी इस प्रतिकूलता में, वह दीपक क्या खूब जला.
अब हुयी हवा प्रचंड मगर, लहर लहर कर दीप जला.

पानी गरज गरज कर बरसा, फिर भी दीपक बुझा नहीं.
तूफ़ान भी कमजोर न था,वह दीपक फिर भी उड़ा नहीं.

उड़े फूल नैवेद्य भी विखरा, लेकिन वह दीपक बुझा नहीं.
हुआ अन्धेरा संभले सब भक्त, कारण दीपक के गिरे नहीं.

हैरान फूल था देख रहा, पूछा वहीँ से ये राज है क्या?
हंसकर बोला नन्हा दीपक, जलेंगे जबतक साथ अपनों का.

सोचूंगा मै तब जब छोड़ेंगे साथ मेरा घी और बत्ती.
जब तक साथ है खूब जलूँगा, बात है बिल्कुल पक्की.

तुम डाली को छोड़ चुके थे, अहंकार से नाता जोड़ चुके थे.
आखिर टिकते फिर भी कितना, साथ अपनों का छोड़ चुके थे.

9 comments:

  1. तुम डाली को छोड़ चुके थे, अहंकार से नाता जोड़ चुके थे.
    आखिर टिकते फिर भी कितना, साथ अपनों का छोड़ चुके थे.

    सुन्दर संदेश देती शानदार रचना।

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  2. संगीता जी !
    वंदना जी !
    पधारने और उत्साहवर्द्धक टिप्पणियों के लिए आप लोगों का आभार.

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  3. तुम डाली को छोड़ चुके थे, अहंकार से नाता जोड़ चुके थे.
    आखिर टिकते फिर भी कितना, साथ अपनों का छोड़ चुके थे.
    यथार्थ व् बोधगम्य शिल्प ,मन ,मानस को छू गया /
    बहुत -२ आभार जी /

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  4. Udaya Veer Bhaai!

    पधारने और उत्साहवर्द्धक टिप्पणि के लिए आप का आभार.

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  5. सधा की तरह प्रेरक रचना।

    सोचूंगा मै तब जब छोड़ेंगे साथ मेरा घी और बत्ती.
    जब तक साथ है खूब जलूँगा, बात है बिल्कुल पक्की.

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  6. Manoj ji !

    Thanks for kind visit and creative comments please.

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  7. वाह बहुत सुन्दर प्रेरणादायी रचना ..दीपक सर्वदा जलता रहना चाहिए..कितनी भी परिस्थितियां विपरीत हो ...

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  8. Thanks Ashutosh for creative and valuable comments please.

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