ज्ञान बड़ा है या परिकल्पना?
बोध बड़ा है या कोई संरचना?
अस्तित्व बड़ा या है संरचना?
विचार बड़ा है या कोई रचना?
ज्ञान है; विज्ञान और बोध द्वारा
परीक्षित - प्रमाणित एक नाम.
और स्वयं विज्ञान क्या है?
परिकल्पनाओं का परीक्षण.
और क्या? तथा अस्तित्व है -
इन्हीं मापकों का मापन.
प्रमाणों को भी
प्रमाणित करनेवाला प्रमाण.
और दृश्यमान यह कृत्रिम संरचना?
यह है विज्ञान का लाडला पुत्र,
'तकनीक', जिसके एक हाथ में
है -'ध्वंस' और दूसरे में 'सृजन'.
'विज्ञान' ज्ञानरूप में तो है -
निश्छल - निर्वैर और निस्पृह.
परन्तु तकनीक रूप में भयावह.
उसके ट्रिगर और बटन पर
है शासन संकल्प और
परिकल्पनारूपी उँगलियों का.
परिकल्पना, जिसके मूल में है
एक चाहत, जो होता है विकसित
आचार से, संस्कार से, विचार से.
कि वह विश्व पर करना चाहता है
शासन या बनता है विश्वामित्र.
भाई को समझता है शत्रु या मित्र.
विज्ञान तो है बूढा - लाचार,
थमा दी है उसने अपनी
मशाल बन्दर के हाथ में.
और बन्दर जिसका अपना
कोई घर नहीं होता.. जब भी
जलाएगा दूसरे का ही छप्पर.
श्रम-श्वेद से निर्मित कुटिया.
किन्तु बन्दर को इससे लेना क्या,
डूबे जिस भी गरीब की लुटिया.
विज्ञान मौन है,
तकनीक अश्वत्थामा रूपी
विज्ञान का वह ब्रह्मास्त्र है
जिसे छोड़ा तो जा सकता है
परन्तु लौटाया नहीं जा सकता.
तो कौन संभालेगा-
विज्ञान के इस बिगडैल पुत्र को?
अरे वही जिसने मोड़ी था दिशा,
अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का -'कृष्ण'.
आज वही मोड़ेगा विज्ञान के
इस बिगडैल के अस्त्र को.
आज का कृष्ण है -
'नैतिकता' और 'इंसानियत'.
'मानवता', 'दिव्यमानव' की
संकल्पना और परिकल्पना.
हाँ, परिकल्पना जो है देन,
चिन्तक और चिंतन की.
दार्शनिक और दर्शन की.
यह चिंतन ही बन जाता है -
आवश्यक परीक्षण के पश्चात
एक सुनिश्चित ज्ञान, विज्ञान.
हां, परिकल्पना ही है -
सदियों पहले, ज्ञान और विज्ञान के,
मध्य में भी है, ज्ञान और विज्ञान के,
है पश्चात भी, ज्ञान और विज्ञान के.
यह परिकल्पना ही खेल है
उस निर्गुण - निराकार का भी,
जो खेलता है खेल, करता है लीला;
धारण कर विविधरूप सगुण-सरूप का.
यह परिकल्पना ही खेल है
उस निर्गुण - निराकार का भी,
जो खेलता है खेल, करता है लीला;
धारण कर विविधरूप सगुण-सरूप का.
गहन चिंतनीय विषय को उदघाटित करती हुई रचना के लिये बधाई स्वीकारें! विज्ञानं के चमत्कार आज हम देख ही रहे हैं और देख रहे हैं उसका विध्वंसक रूप भी, मानव की चेतना ही कृष्ण बन मार्ग दिखाएगी !
ReplyDeleteगुरु जी..
ReplyDeleteमुझे लगता है परिकल्पना बड़ी है...क्युकी ज्ञान चछु परिकल्पना से ही खुलते है..
सुन्दर ..आनंद आ गया
गहन चिंतन और दर्शन की बात.....बड़ा कौन ...मेरे ख्याल से सोच और भावना और समर्पण बड़ा....
ReplyDeleteअच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....
ReplyDeleteसभी स्नेही स्वजनों का पदार्पण और टिप्पणी करने के लिए आभार. आलोचना - समालोचना में बड़ा बल होत है, उससे चिंतन प्रक्रिया को नवीन ऊर्जा मिलती है.
ReplyDeleteहमारे किसी भाई/बहन ने दूसरों के ब्लॉग पर जाकर टिप्पणी की बात कही है. बात बिल्कुल सोलह आने सच है. लेकिन मेरी कुछ मह्बूरियाँ हैं. सप्ताह में एक बार आपात हूँ घर. वहीँ बच्चों के कम्पूटर पर जितना बैठ पाता हूँ बैठता हुनौर उस बीच टिप्पणी भी जरूर करता हूँ. लेकिन उसी पर जो हमारी समझ में आ जाय. जिसकी विषय वस्तु समझ में न आये, क्लिष्ट हो अथवा कुछ अलग हट कर हो उस पर जानकार लोगो को तिपनी करनी चाहिए. ऐसा मेरा माना है. स्वस्थ और तर्कसंगत टिप्पणियों का सदा ही स्वागत है.