Monday, February 21, 2011

पूर्णता का दर्शन

 


भारतीय संस्कृति में वर्णित उपनिषदिक दर्शन को प्रायः 'पूर्णता का दर्शन'  कहा जाता है. क्या है यह पूर्णता का दर्शन और क्यों कहा जाता है इसे पूर्णता का दर्शन? आइये आज इसे समझने का प्रयास करते हैं. इसके लिए श्वेताश्वर उपनिषद् के एक मन्त्र को यदि हम प्रतिनिधि और बीजमंत्र कर रूप में स्वीकार कर सकें तो यह पूर्णता अपने दिव्य रूप में वहाँ प्रकट होता है, समझने और समझाने दोनों ही दृष्टि से यह उत्तम है.यह मन्त्र है -

'एको देवः सर्वर्भूतेषु गूढः  सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा 
कर्माध्यक्षः सर्व भूताधिवासः साक्षी चेता केवलः निर्गुणश्च'  - (६.११)  

अर्थात, सभी प्राणियों में स्थित ईश्वर एक है, वह सर्व व्यापक. समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बसा हुआ साक्षी, परम चैतन्य, परम शुद्ध और निर्गुण है. यह तो हुआ इस मन्त्र का शब्दार्थ. परन्तु यह मन्त्र है बहुत रहस्यपूर्ण, ....आइये इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखें, संख्याओं में विभाजित कर गणितीय रूप में देखें  -
      १ - एको देवः 
      २ - सर्वर्भूतेषु गूढः  
      ३ - सर्वव्यापी 
      ४ - सर्वभूतान्तरात्मा 
      ५ - कर्माध्यक्षः 
      ६ - सर्व भूताधिवासः 
      ७ - साक्षी 
      ८ - चेता 
      ९ - केवलः 
      १० - निर्गुणश्च
इस मन्त्र में हम देख सकते हैं कि पूरे मन्त्र को १ से १० की संख्या में विभाजित किया जा सकता है. संख्या का प्रारंभ १ से है और एक अंक की सबसे बड़ी संख्या ९ है और यह संख्या 'केवल' है. दसवी संख्या निर्गुण है जिसका गुणन नहीं हो सकता, वह शून्य है. शून्य स्वतः निर्गुण है ऊपर वाले १ पर इस निर्गुण शून्य को रख देने से १० संख्या स्वतः बन जाती है. इस १० में सम्मिलित '१' ब्रह्म और आत्मा दोनों का प्रतिधित्व करता है. इसमें '१०' नाम-रूपमय सृष्टि का वाचक है. इस '१' के अभाव में समस्त सृष्टि 'o' शून्य है. मृत है, प्रलायावास्था में है, मूल्यहीन है तथा '१' के साथ रहने पर वही मूल्यवान है, सजीव है. '९' अंक केवल है, पूर्ण है, अतएव '९' अंक जहां भी रहता है, अपने स्वरुप का परित्याग नहीं करता. अतः केवल है, अतः केवल वही रहेगा जो वस्तुतः है..

उदाहराणार्थ :   ९ के गुणनफल का योग सदैव ९ ही होगा.
            ९ x १ = ९
            ९ x २ = १८,     (१ + ८ = ९ )
            ९ x 3 = २७,    (२ + ७ = ९ )
            ९ x ४ = ३६,     (३ + ६ = ९ )
                         ........................................
इतना ही नहीं योग (+) और घटाव (-) की क्रिया में भी यह ९ अपने स्वरुप का परित्याग नहीं करता. आइये देखें कैसे - 
(अ) - ९ + ८ + ७ + ६ + ५ + ४ + ३ + २ + १ = ४५,  
                                            (४ + ५ = ९)

(आ) -  ९ ८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १       कुल योग = ४५ (४ + ५ = )
   (-)   १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९       कुल योग = ४५ (४ + ५ = ९)
    ---------------------------
     =  ८ ६ ४ १ ९ ७ ५ ३ २       कुल योग = ४५ (४ + ५ = )
              .................................
इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म परमपूर्ण है, वह (अदः) और यह (इदं) दोनों ही पूर्ण है. उस पूर्ण में से पूर्ण को घटाने पर भी सम्पूर्ण ही शेष बचता है.- 
.'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते 
  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते'. 

इस दर्शन के अनुसार 'ब्रह्म' आदि, मध्य और अन्त, सभी काल में पूर्ण है. इस मन्त्र में निर्गुण और सगुण दोनों ही सिद्धांतो का, विचारधाराओं का अद्भुत मेल है. सृष्टि के प्रारम्भ में वह 'ब्रह्म' अकेला था, सृष्टि रचना के बाद भी, सब कुछ अपने अन्दर समेट कर एक '१' रहा भी..., और नहीं भी रहा...., वह अनेक  '१०' बन गया.., जगत बन गया, सृष्टि बन गया. '१ ' विहीन '१०' (जगत) शून्य '०' है. निर्गुण है. एक '१' के साथ सम्मिलित रूप में वही '१०' ...है, सृष्टि है, ...सगुण है. ....परन्तु यह सगुण भी अंततः निर्गुण ही है.... 
-       (१ + ० = १, अर्थात 'लौकिक जगत सत्य है')    
        (१  - ० = १, अर्थात 'पारलौकिक जगत सत्य है') और      
        (१ x ० = ०, अर्थात 'जगत असत्य है, आभास है'). 

यही इस 'ब्रह्म' का 'सगुण', 'निर्गुण', और 'सगुण - निर्गुण', उभय रूप का खेल है, वह विलक्षण है, अव्याख्येय और अनिर्वचनीय है, जिसे शब्दों में बाँधने के प्रयास में, गणित के सूत्रों में पिरोने के प्रयत्न में ज्ञानी -ध्यानी, संत-महात्मा और दार्शनिक से लेकर वैज्ञानिक तक सभी अनवरत उलझे हुए हैं..., अपनी-अपनी परिकल्पनाओं... और व्याख्याओं...और माडल ...के साथ....... 

7 comments:

  1. बहुत गहरा विवेचन .....आभार

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  2. .

    डॉ तिवारी ,

    आपके कारण इतने उच्च कोटि के आलेख कों पढने का मौक़ा मिला । आपकी लेखनी कों नमन ।

    अंकों के प्रभाव का ज्ञान और ब्रम्ह के साथ अद्भुत संयोजन इस लेख में पढने कों मिला । अंक नौ का संयोग इतना सशक्त है , या भी यहीं जाना । इसके combinations और permutations में हर स्थिति में अंक नौ का आना भी शोधपरक है । अंकों का विज्ञान अत्यंत रोचक है । जितना भी पढो , आगे पढने और शोध कि लालसा जागृत हो जाती है । आपके इस लेख कों चार-पांच बार पढ़ा , कभी ऊपर का para दुबारा पढ़ा तो कभी scroll करके नीचे का । बुद्धि मानो इस ज्ञान कों आत्मसात कर लेना चाहती हो ।

    मेरी दीदी जो विश्वविद्यालय में 'भैतिकी' विषय में प्रोफ़ेसर हैं उन्हें आपका यह लेख पढवाया । उन्हें आपका आलेख बहुत ही पसंद आया । उन्होंने आपको इसके लिए बधाई एवं आभार प्रेषित किया है ।

    इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए एक बार आपका पुनः आभार ।

    .

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  3. डॉ. मोनिका जी, डॉ. ZEAL !
    सर्व प्रथम ब्लॉग पर पधारने हेतु धन्यवाद. इस आलेख पर मेरे मित्रों ने फोन पर वार्ता किया है, कुछ स्थानीय मित्रगन तारी में मिले थे सबकी इच्छा है की इसे थोड़ा और विस्तृत किया जाय. अभी यह सूत्र रूप में है सबके लिए बोधगम्य नहीं है. मेरा प्रयास है की मित्रों की अभिलाषा पूरी कर सकूं.यह थोड़े परिवर्तन और विस्ता के साथ शीघ्र ही नए रूप में दिखेगा.

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  4. दर्शन और गणित का अद्भुत समन्वय आपके लेख द्वारा होता है, बार-बार पढ़ने योग्य इस लेख के नए रूप का इंतजार रहेगा!

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  5. .

    डॉ तिवारी ,

    मित्रों ने सही कहा , इस लेख कों थोड़ा विस्तार दीजिये । जिससे समझने में आसानी हो सके । ये लेख ज्ञानवर्धक होने के साथ साथ बहुत ही रोचक है ।

    आपके लेख का इंतज़ार रहेगा ।

    सादर ,
    दिव्या

    .

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  6. आदरणीय डा० तिवारी जी 'ब्रह्म' का 'सगुण', 'निर्गुण', और 'सगुण - निर्गुण' रूप इतने सरलतम ढंग से समझा कर आपने सम्पूर्ण 'इशावास्योपनिषद' जिज्ञासुओं हेतु परोस दिया है। आपकी मनीषा को हम सादर नमन करते हैं। ऐसे उत्कृष्ट लेखन हेतु आपको बहुत बहुत बधाई ...

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  7. दर्शन और गणित का अद्भुत समन्वय बन पडा है। जगद्गुरु पुरी शंकराचार्य (वर्तमान) ने भी १ व १० का कुछ ऐसा ही विवेचन किया है। एक बार अवश्य देख लें।

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