हममे तुझमे जो अंतर है,
वह बीच में रेखा खीचता है.
हममे तुझमे जो गहनता है,
जग उसे क्यों नहीं देखता है?
हम तुम देखो जुड़े हैं- कैसे?
नदी के तीर आपस में जैसे.
चलते-चलते थक जायेंगे
बहते - बहते मिट जायेंगे.
शंख- सीप-मोती लुटाकर भी
मिलने को तरस हम जायेंगे.
मिल सकते हैं दोनों तब जब
दरिया - हिमनद सुख जायेंगे.
लेकिन कब हम चाहेंगे ऐसा?
क्या चाह हमारी स्वार्थ जैसा?
हम ऐसे ही बहते जायेंगे,
मिट्टी को बना के उपजाऊ.
प्यार की फसल खिलाएंगे
नहीं सूखने देंगे हिमनद को,
हम अश्रु यूं ही पी जायेंगे
ऐसे ही ...चलते जायेंगे.....
ऐसे ही ...बहते जायेंगे.....
अभी हवा का झोंका आया
साथ मधुर संगीत भी लाया,
"तन से तन का मिलन हो
जरूरी नहीं, मन से मन का
मिलन कोई कम तो नहीं".
हम इसे आदर्श बनायेंग,
मन को भी समझायेंगे.
अब अश्रु नहीं बहायेंगे,
अपना फर्ज निभायेंगे...
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"तन से तन का मिलन हो
ReplyDeleteजरूरी नहीं, मन से मन का
मिलन कोई कम तो नहीं".
हम इसे आदर्श बनायेंग,
मन को भी समझायेंगे.
अब अश्रु नहीं बहायेंगे,
अपना फर्ज निभायेंगे...
बहुत सुन्दर प्रेरक रचना है। बधाई।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति तिवारी जी ...प्रेम ज़मीनी रिश्तों से बहुत ऊपर है .. और इसे साबित करने के लिए बड़े बड़े अवसरों की ज़रुरत नहीं ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावप्रद कविता एक संदेश देती है……………सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteprerak..bhaavmay sundar rachna...aabhaar
ReplyDelete3/10
ReplyDeleteअच्छा सन्देश
सतही व सामान्य पोस्ट
Thanks to all participants and criticizes for valuable comments please.
ReplyDeleteDr.Saheb,
ReplyDeleteKartavya aur mano kee ekta ka sandesh anukarneey hai.Sabhee ko iska palan karna chahiye.
मन से मन का
ReplyDeleteमिलन कोई कम तो नहीं"...
Beautiful !
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सुन्दर भाव
ReplyDeleteअब अश्रु नहीं बहायेंगे,
ReplyDeleteअपना फर्ज निभायेंगे...
Thanks, many thanks to all participants and criticizes for their valuable comments please.
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