Tuesday, November 9, 2010

हम और तुम

हममे तुझमे जो अंतर है,
वह बीच में रेखा खीचता है.
हममे तुझमे जो गहनता है,
जग उसे क्यों नहीं देखता है?
हम तुम देखो जुड़े हैं- कैसे?
नदी के तीर आपस में जैसे.
चलते-चलते थक जायेंगे
बहते - बहते मिट जायेंगे.
शंख- सीप-मोती लुटाकर भी
मिलने को तरस हम जायेंगे.

मिल सकते हैं दोनों तब जब
दरिया - हिमनद सुख जायेंगे.
लेकिन कब हम चाहेंगे ऐसा?
क्या चाह हमारी स्वार्थ जैसा?
हम ऐसे ही बहते जायेंगे,
मिट्टी को बना के उपजाऊ.
प्यार की फसल खिलाएंगे
नहीं सूखने देंगे हिमनद को,
हम अश्रु यूं ही पी जायेंगे
ऐसे ही ...चलते जायेंगे.....
ऐसे ही ...बहते जायेंगे.....

अभी हवा का झोंका आया
साथ मधुर संगीत भी लाया,
"तन से तन का मिलन हो
जरूरी नहीं, मन से मन का
मिलन कोई कम तो नहीं".
हम इसे आदर्श बनायेंग,
मन को भी समझायेंगे.
अब अश्रु नहीं बहायेंगे,
अपना फर्ज निभायेंगे...
,

11 comments:

  1. "तन से तन का मिलन हो
    जरूरी नहीं, मन से मन का
    मिलन कोई कम तो नहीं".
    हम इसे आदर्श बनायेंग,
    मन को भी समझायेंगे.
    अब अश्रु नहीं बहायेंगे,
    अपना फर्ज निभायेंगे...
    बहुत सुन्दर प्रेरक रचना है। बधाई।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति तिवारी जी ...प्रेम ज़मीनी रिश्तों से बहुत ऊपर है .. और इसे साबित करने के लिए बड़े बड़े अवसरों की ज़रुरत नहीं ..

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर भावप्रद कविता एक संदेश देती है……………सार्थक अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  4. prerak..bhaavmay sundar rachna...aabhaar

    ReplyDelete
  5. 3/10

    अच्छा सन्देश
    सतही व सामान्य पोस्ट

    ReplyDelete
  6. Thanks to all participants and criticizes for valuable comments please.

    ReplyDelete
  7. Dr.Saheb,
    Kartavya aur mano kee ekta ka sandesh anukarneey hai.Sabhee ko iska palan karna chahiye.

    ReplyDelete
  8. मन से मन का
    मिलन कोई कम तो नहीं"...

    Beautiful !

    .

    ReplyDelete
  9. अब अश्रु नहीं बहायेंगे,
    अपना फर्ज निभायेंगे...

    ReplyDelete
  10. Thanks, many thanks to all participants and criticizes for their valuable comments please.

    ReplyDelete