गंगा - यमुना दो बहने हैं
उदगम दोनों का हिमालय है,
गंगा की जन्मस्थली -'गोमुख'
यमुना की वहीं -'यमुनोत्री' है.
दोनों ही बहती प्यार लिए
स्नेहिल वेगमय धार लिए,
दोनों का पथ है अलग -अलग
संगम पर एकदिन जा के मिले.
थी मिलने की खुशियाँ भी बहुत
पर रंजोगम कुछ कम भी न था,
जब कुशल क्षेम की बात चली
मन का भांडा फिर फूट पड़ा.
बोली यमुना यूँ गंगा से -
मुझमे तुझमे यह भेद है क्यों?
सांवली हूँ मै तू गोरी है...,
इस रंग पर इतनी गर्विता क्यों?
माना तू प्रिय है -भोले को ,
उच्श्रृंखला हो मस्तक जा बैठी
कुछ शर्म करो उस भगिनी का,
क्यों हक उसका तुम छिन बैठी?
हक मेरा छिनना चाहती हो
क्यों इतना मुझे सताती हो?
क्या रंग - रूप ही है सब कुछ,
इतना जो तुम इतराती हो.
यह मानव जाती पूजती तुमको,
मै पड़ी - पड़ी ललचाती हूँ.
क्या तुझमे अधिक है मुझसे?
आज तुमसे ही सुनना चाहती हूँ.
बोली गंगा - सुनो बहना मेरी!
है भ्रम तेरा यह ईर्ष्या है तेरी.
थी बसती मै 'हरि चरणों में',
अनुरक्ति मेरी 'हरि चरणों में'.
उन चरणों का ही प्रसाद मिला,
मुझे तारने का अधिकार मिला.
जिसको हो समझती उच्श्रृंखलता
वह गर्व नहीं है - समर्पण है'..
समर्पित का स्थान है - 'दो ही',
एक दिल है और एक मस्तक है.
दिल में रहती मेरी भगिनी है,
मुझे मिला स्थान जो, 'मस्तक' है.
था अधिकार यह भोले को,
चाहे जैसा व्यवहार करें.
मै तो हूँ - 'शिष्या' उनकी,
मत करो संदेह पवित्रता पर.
निज मन की यह विकृति तेरी,
कुछ शर्म करो! कुछ शर्म करो! !
पूछा तुमने जब अंतर है,
उसको अब तुम्हे बताती हूँ,
जिस 'हर' की हूँ दासी मै.
तू उसकी गेंद चुराती है.
शरण स्थली बनी रही हो,
ताज दिया तूने मर्यादा है.
पहले था संरक्षण कालिया को,
अब संरक्षण विधि छलिया को.
सीख मान लो बहना मेरी!
संकल्प सहित यह यह कहती हूँ.
है साक्षी इसकी सरस्वती यहाँ,
चलो सभे संग अब बहती हूँ.
मुझमे तुझमे कुछ भेद नहीं,
जो गंगा है वह यमुना है.
मिटा राग - ईर्ष्या जब से
नाम -रूप रंजोगम खो गाया,
मन का सब मालिनी धुल गया.
अब तो सब गंगा ही गंगा.
मिला संयुक्त अधिकार जब तारने का
निज नाम भूल गयी यमुना अब,
लगी कहने निज को भी गंगा-गंगा अब.
सभी के मन में बसती हैं ये,
गंगा - यमुना जो नदियाँ हैं.
अब तेरे ऊपर है मेरे भाई!
कौन बहती तेरी 'अखियाँ हैं'.
kushak kaavya-dristi...sundar rachna...aabhaar.
ReplyDeleteवाह.......कितनी सुन्दर रचना है यह........!!
ReplyDeleteमै इसकी तारीफ में बहुत कुछ कहना चाहता हूँ, पर हमेशा कि तरह मौन हूँ,क्योंकि मेरे पास वे शब्द नहीं जो मेरे भावों को अभिव्यक्त कर सकें |
बेहद सुन्दर लेखन के लिए बधाई स्वीकार करें एवं सादर आग्रह है कि मेरे ब्लॉग में आकर मेरा मार्गदर्शन करें .......
गज़ब की शानदार सोच को दर्शाती रचना ……………सोच को नयी दिशा देती है।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
सब गंगा ही गंगा है । बहुत बडिया कविता। बधाई।
ReplyDeleteis samvaad se bahut kuchh gyaan mila ...aabhaar
ReplyDeleteहम सब कुछ को भूल कर एक सूत्र में बंधे रहें, इन गहन संवेदनाओं को बेहद खूबसूरती और मर्मस्पर्शी रूप से उकेरा गया है. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
Thanks! Many Many Thanks!! to all learned participants and criticizers. Your criticism are my power, my energy......
ReplyDeleteये संवाद सिर्फ गंगा यमुना का नही है बल्कि जीवन की भी हैं ....
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता के लिए बधाईयां और धन्यवाद ....
http://nithallekimazlis.blogspot.com/
Ashok ji!
ReplyDeleteThanks for creative and positive as well as encouraging comments.
डा .सा ;,
ReplyDeleteव्यक्तित्व निखार का जो नुस्खा आपने इस कविता के माध्यम से दिया है वह सच में अनुकरणीय है,यदि हम पालन करें तो सच्चे इंसान बन सकते हैं.