Saturday, June 12, 2010
मेरी बूढी माँ
माँ मेरी अब बूढी हो गयी,
पड़ गयी हैं झुरियां चेहरे पर.
लटक गए हैं उन बाँहों से,
चमड़ी के लोथड़े जिन्हें बनाकर
झूला मुझे लिटाया था और
व्योम में भी उछाला था.
कंधे पर बिठा के खपरैल की मुंडेर
के पीछे .इन्हीं हाथों से दिखा - दिखा के
चंदामामा को, गौरैया को, कबूतर को..,
न जाने कितनी बार, दिन में - रात में,
कटोरी और गिलास से दूध पिलाया था.
माँ जिसे दिखता नहीं अब मोटे चश्मे से भी,
हर चीज पहचानती है वह, बस आभास से..,
एहसास से.., उसके होने के विश्वास भर से.
किन्तु, ...माँ को सब...दीखता है.....,
बहुत स्पष्ट दिखता है, सैकड़ो मील दूर से...
मेरा बेटा, मेरी बहू, मेरे नाती - पोते..,
क्या कर रहें हैं? ..कैसे खेल रहें हैं?
कौन सो रहा है? ..कौन रो रहा है?
कौन है बीमार ? .और कौन है परेशान?
माँ, जो कभी भेजती थी चिट्ठी,
आज कराती है फोन.
लुटती है जान, जो अब बची ही कहाँ?
कहती थी जिसे कभी फिजूलखर्ची,
अब उसी पर है लट्टू.
लालायित है जानने को बच्चो की मर्जी.
परन्तु बेटे क्या करते हैं.....?
फोन पर कभी-कभी झल्ला जाते हैं,
उसी पर पूरा इतिहास और भूगोल
समझा जाते हैं.
माँ सब समझती है, खूब समझती है,
जाने कैसे मर्म को भेदती है?
फोन न करने की कसमे खा-खाकर भी,
हर तीसरे - चौथे दिन घंटी जरूर बजती है.
हो जाता मन बेचैन क्यों, जब फोन नहीं आता है.
खुद ही रिंग करने का, फिर साहस क्यों खो जाता है?
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बहुत मर्मस्पर्शी रचना...माँ का दिल ऐसा ही होता है
ReplyDeleteThabks for creative comments
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