निराश नहीं हूँ मै, तलाश रहा हूँ
अब भी...आज भी..., लगातार.....
ऐसे इंसानों को, ....
इस 'ब्लोग्स' के माध्यम से
जो ...मानवता की, आवाज बन जाय,
इंसानियत की पहचान बन जाय.
संविधान की तेजस्विता,... ,
उसके सुप्त पौरुष को जगा जाय.
अन्यथा यह स्वतंत्रता.....,
'स्व' का 'तंतु' बन जायेगा.
हम नहीं कह सकते,कि जंगल तो रहे नहीं,
इसलिए जंगलराज का खतरा नहीं?
'तत्र' भी भले तंतु बनने से बच जाय,
परन्तु सोचिये !..फिर सोचिये !.!
लोक का क्या होगा?
लोक मंगल का क्या होगा?
हमारी संकृति का क्या होगा?
हमारी प्रकृति का क्या होगा?
इसलिए हमें तलाश है -
कर्त्तव्यपरयनों की..
ऐसे इंसान की जिसका,
जाति, धर्म, लिंग, पहचान,चाहे जो हो, परन्तु;
अन्दर का इंसान जागृत हो.
हम ऐसे मानव को,
समग्र मानव के रूप में
विकसित करना चाहते है,
समग्र मानव वह है - जिसके मष्तिस्क में,
'ब्रह्म तेज', भुजाओं में क्षात्रत्व का बल,:
वणिक का वाक्-चातुर्य, कृषक सी उदारता,
उसकी पोषक क्षमता, और धैर्य
सब एकसाथ समन्वित रूप में विद्यमान हो.
यह सच्चा कर्म योगी होगा,
आदर्श होगा.....परन्तु ...
एक और अकेला नहीं होगा.
बहुलता में होगा,
नकारात्मकता को
मिटाया तो नहीं जा सकता,
यह प्रकृति का अनिवार्य तत्त्व है.
उसका जन्मजात अवयव है
हाँ, इसे सीमित, बहुत ही न्यून
अवश्य किया जा सकता है.
हम होंगे ..आप होंगे,.. वे होंगे ...
तब अपना सपना साकार होगा.
अब यह आप पर निर्भर है;
कितनी गंभीरता से इसे लेते हैं.
यह मात्र कोरी परिकल्पना नहीं है.
छिपा है पीछे एक सुविचारित दर्शन.
सुखद, शांतिप्रिय समाज संरचना की,
एक उत्कट तीव्र अभिलाषा,
एक दुर्घर्ष जिजीविषा....
एक समर्पित अभीप्सा....
और .भी .बहुत कुछ...बहुत कुछ..
यह कोई उपकार नहीं,
समाज का, जन्मभूमि का
एक बड़ा ऋण है हम पर ..,
समाज के उसी कर्ज को,
फर्ज रूप में समाज को ही
लौटना चाहते है.
प्रकृति के अनुदान को कर स्वीकार,
उसके मान-सम्मान को बढ़ाना चाहते हैं.
जाने अनजाने, जंगल को बंजर भले किया हो,
अब वृक्ष- बाग़ - वन खूब लगाना, चाहते हैं.
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
ReplyDeleteशब्द और भाव का सुन्दर मेल - बहुत खूब।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
निश्चित ही यह कोरी परिकल्पना नहीं है...सार्थक विचार है और उम्दा रचना है. जरुर रुप लेगा.
ReplyDeleteआदरणीय सुमन जी, भाष्कर जी, समीर जी ... .यह आप लोग ही तो हैं जिनसे प्रेरणा, बल, और लिखने का उत्साह जागृत होता है . यह आप ही जैसे उर्जस्वी और संवेदनशीलों के मन की भाषा है, और आप को है समर्पित है-. 'तेरा तुझको अर्पण'. मेरा कम तो केवल इतना है -"का चुप साधी रहा बलवाना ". सार्थक और उत्साह वर्धक टिपण्णी के लिए साधुवाद .
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