पुनर्निर्माण शब्द ही असंतुष्टि भाव का द्योतक है, इस शब्द का एक निहितार्थ यह भी है कि राष्ट्रीय अपेक्षाओं कि पूर्ति नहीं हुई है, परन्तु इस शब्द में ही सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इस निराशायुक्त शब्द में भी कहीं न कहीं आशा का एक रचनात्मक भाव भी प्रेरकतत्व के रूप में अंतर्निहित है;. इस आशा के साथ कि अब जो भी होगा सार्थक होगा, इससे भूत कि भूलों को सुधारा जा सकेगा, भविष्य के लिए लाभकारी होगा; यही इसकी सर्जनात्मक उर्जा शक्ति है, यही इसकी उपयोगिता है और उपादेयता भी. इसे राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सोचना, योजनायें बनाना, वह भी शिक्षाविदों कि संगोष्ठी में, शिक्षा के माध्यम से. यह कंचनमणि संयोग ही कहा जायेगा.
यहाँ प्रश्न उठता है कि यह अपेक्षा किसे है और क्यों है? निश्चित रूप से यह अपेक्षा एक राष्ट्र की है और अपने संवदनशील, प्रबुद्ध नागरिकों से है, क्योंकि वही चिन्तनशील बौद्धिक नागरिक, एक निकाय के रूप में स्थानीय स्तर पर और सरकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर इसका संचालक है. वही इन लक्ष्यों का निर्धारक है, समीक्षक है और लक्ष्यपूर्ति के आभाव में, पुनर्निर्माण का प्रेरक भी.
राजनितिक दृष्टि से हमने स्वतंत्रता ६२ वर्ष पूर्व प्राप्त कर ली है, हमारी सरकार ने राष्ट्रीय प्रगति हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रमों को बनाया, धन की, संसाधनों की हरसंभव व्यवस्था की, परन्तु अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई. आखिर क्यों? जिस सरकार में अपने देश के नागरिक, शासन-प्रशासन में अपने देश के नागरिक, प्रबंधन - व्यवस्थापन - अधिकारी - कर्मचारीगण, सभी देश के नागरिक; फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं, ऐसा क्यों? हमें इसपर विचार करना होगा, मिल बैठ कर चिन्तन करना होगा और समाधान ढूढना होगा. माना कि भूत की सीढ़ी को ढोना शायद उचित नहीं, परन्तु क्या भूतकाल के इसी चितन-समीक्षा में नहीं छिपे हुए है समाधान के सार्थक बीज? कारण चाहे जितने गिना दिए जाय, परन्तु इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण कारण है -"शिक्षा" .
आज की शिक्षा धनोपार्जन की और मुड चुकी है. धन की चकाचौघ ने, अकूत सम्पति की चाह, आर्थिक स्वतंत्रता की लालसा ने, 'स्वतंत्रता' शब्द के अर्थ - निहितार्थ को ही बदल डाला है. स्वतंत्रता का अर्थ कहीं न कहीं स्वछंदता ने ले लिया है. यह अलग बात है कि सीधे-सीधे इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा. आर्थिक स्वतंत्रता की लालसा में कहीं न कहीं हम अपने दायित्व - जिम्मेदारी - कर्तव्यपरायणता से न केवल समझौता करने लगे हैं बल्कि यदि लीक से थोडा हट कर कार्य करने से, जिसमे जीविका जाने का खतरा न हो, तो उसे करने में हिचक नहीं, चाहे इसमें राष्ट्रीय क्षति क्यों न हो रही हो. ऐसे अनेकानेक मामले प्रकाश में आये हैं, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं. यह चिंता का विषय है और साथ ही चिंतन का भी.
"क्या थे, क्या हैं, होंगे क्या ? / अब यही बैठ के सोच रहाँ हूँ / शिक्षा में ह्रास भिक्षा की आस / हर बात में पश्चिम देख रहा हूँ / चिंतन की गिरावट धन कि लोलुपता / रिश्तों की बर्बरता देख रहा हूँ ..."
"समाज के तीन सजग प्रहरी / खादी, खाकी और टाई / समाज के तीन कर्णधार / अभियंता, डाक्टर और शिक्षक / परन्तु क्या कहूँ इनकी गति / कैसी हो गयी है इनकी मति / कभी - कभी तो ये / ऐसे कार्य करने में भी नहीं शर्माते / जिसे कहने में हमें शर्म आती है... "
"आज शिक्षक रूपी माली / कुम्भकार, शिल्पकार और कथाकार / हैरान है, परेशान है..../ सोचा था यह डाली / लाएगी - फल, फूल और हरियाली? / परन्तु हाय! इस डाली से / क्यों टपकी यह खून की लाली? / देखो! यह कैसा अनर्थ है? / क्या हमारी शिक्षा ही व्यर्थ है? / हमारे श्रम में तो कोई खोट नहीं थी मेरे मित्र! / फिर इस आकर्षक घट में, / मृदुल जल की बजाय छिद्र क्यों है? / इन नवीन कहे जाने वाले कृतियों में / संगीत के स्वरों में / ओज और माधुर्य के स्थान पर / नग्नता और विकृति क्यों है?
यदि उपरोक्त समस्याओं के मूलभूत कारणों को ढूढा जाय तो हमें शिक्षा पद्धति में संशोधन की आवश्यकता परिलक्षित हो रही है. शिक्षा में यह संशोधन किस प्रकार का होना चाहिए? अथवा किया जा सकता है, आइये देखें, समाधान ढूंढें -
कारण है सबका ही एक / नहीं किया तूने शिक्षा और विद्या में भेद / इसी विद्या के अभाव में, / शिक्षा का उत्पाद दम्भी अभियंता / विकास के नाम पर देश का धन चूसता है, / डॉक्टर चिकित्सा के नाम पर अभिवावकों का खून चूसता है, / काली कोट सफ़ेद टाई वाला / संविधान की मर्यादा चूसता है / ऐसे से में हैरानी क्यों है? / समझो टहनी में लाली क्यों है?
विद्या और शिक्षा में अंतर :
विद्या है - मानव को / महामानव में रूपांतरण की तकनीक / मानव के अंतर की / टिमटिमाती दीप को / प्रदीप्त और प्रखर करने की / अचूक रीति. विद्या लभ्यज्ञान है - स्वानुभूति है, भूमा है / यह नित्य है, सत्य है / और शिक्षा श्रब्यज्ञान है - पुस्तकीय है / व्याख्यान है, अख्यान है / सत्याभास है / यह स्वप्रधान / कामप्रधान, रागी-विषयी / और भोगप्रधान है / विद्या संपूर्ण ज्ञान / स्वानुभूति और आत्मोपलब्धि है / तत्व साक्षात्कार है; / यह सर्वगत, समष्टिगत / समदर्शी, तत्वदर्शी, वीतरागी / योग - प्रधान है / इसलिए शिक्षा के उत्पाद को / सुख - शांति की / सर्वदा तलाश है / जबकि 'सुख शांति संतोष' / तो विद्या का / स्वाभाविक दास है / मेरे मित्र! अब तो ग्रहण करो / विद्या को / इस तरह खड़ा / तू क्यों उदास है ?
सुझाव :
आज इस बात की महती आवश्यकता कि शिक्षा के साथ विद्या को भी अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाय क्योंकि शिक्षा ढेर सारी आय, धनोपार्जन का साधन तो हो सकती है, परन्तु; उसके उपयोग - सदुपयोग की कला तो विद्या के ही पास है. विद्या के अभाव में जाने -अनजाने हो रहा ज्ञान का दुपयोग ही वैश्विक कलह का कारण है, जिसका संधान इस विधि से संभव हो सकता है आज विश्व में दो रुझान, दो प्रकार की गतिविधियाँ कहीं भी बड़ी आसानी से दीख पड़ती हैं.
(i) वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप:
वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप समाज में क्षैतिज प्रगति को प्रदान करता है. रहन - सहन को, बाहरी परिवेश को, हमारी सभ्यता को प्रदर्शित करता है. यह जीवन प्रदाली को सरल, सुविधाभोगी ...और विलासिता पूर्ण बनता है. वहां आधुनिकता के नाम पर मानवीय मूल्यों में ह्रास और उपहास का भाव प्रायः वहां दिख पड़ता है. आज की सर्वाधिक जटिल समस्या ग्लोबल वार्मिंग की समस्या, जंगलों की कटाई, पालीथीन का प्रचलन, जैविक - आणविक हथियारों का सृजन, वैश्विक अशांति, प्राकृतिक संसाधनों, पेट्रोलियम इत्यादि पर अधिपत्य की लालसा इसी वैज्ञानिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप की दें है.
(ii) आध्यात्मिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप:
आध्यात्मिक वृत्ति और इसके क्रिया कलाप समाज को लम्बवत प्रगति प्रदान करता है यह कठिन साधनामय जीवन है. यहाँ उर्द्वार्धर प्रगति की भावना कभी-कभी इतनी बलवती हो जाती है की व्यक्ति सामाजिक जीवन से पलायन कर अरण्यवासी हो जाता है. अथवा कुटिल और पाखंडी व्यक्ति इस कश्र्त्र को अंधविश्वास, सामाजिक कलह का कारण बना दिया करते है.
सुझाव :
क्या पुनर्निमाण के प्रसंग में आज सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की नहीं है कि जिस प्रकार शिक्षा के साथ विद्या को जोड़ने कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है, ठीक उसी प्रकार विज्ञानं और अध्यात्म के सर्जनात्मक पक्ष को जोड़ दिया जाय? इस सुधर से होगा यह कि विज्ञानं संवेदनशील बन जायेगा और अध्यात्म अंधविश्वास जैसी प्रत्गामी प्रवृत्तियों से उपर उठ कर सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन जायेगा. अब हमारी प्रगति न केवल क्षैतिज होगी, न केवल लम्बवत होगी अपितु संतुलित होगी. इसकी आवश्यकत न केवल सामाजिक स्तर पर है, न केवल राष्ट्रीय स्तर पर है; अपितु इसकी सर्वाधिक आवश्यकता तो वैश्विक स्तर पर है. यह प्रत्येक नागरिक का चाहे उसकी भाषा, बोली, राष्ट्रीयता चाहे जो हो, सभी का पुनीत कर्त्तव्य बन जाता है कि इस उद्देश्य कि प्राप्ति में सहयोग करे.
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि -
"क्या यह उचित नहीं होगा / कि प्रगति और उत्थान / संतुलित और सुनियोजित किया जाय / संतुलन और समग्रता कि स्थिति में / हर प्रगति बन जाएगी / एक त्रिज्या / और हम एक वृत्त / इस वृत्त के सुविचार रूपी त्रिज्या को / सद्भावना से अभिन्चित कर / श्रमशीलता के उर्वरक से / मनोवांछित वृत्त के संरचना में संदेह नहीं / और वृत्त क्या है? / सम्पूर्णता का बोधक जिसे स्वीकार किया है / विज्ञानं और अध्यात्म दोनों ने एक साथ....."इस प्रकार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जिस दायित्व बोध की कमी परिलक्षित हो रही है, उसे दूर कर संतिलित प्रगति की जा सकती है. इस प्रकार न केवल राष्ट्र स्तर पर अपितु वैश्विक स्तर पर सार्थक और सृजनात्मक परिवर्तन की सुखद की जा सकती है.
जिस सरकार में अपने देश के नागरिक, शासन-प्रशासन में अपने देश के नागरिक, प्रबंधन - व्यवस्थापन - अधिकारी - कर्मचारीगण, सभी देश के नागरिक; फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं, ऐसा क्यों? हमें इसपर विचार करना होगा....
ReplyDeleteभारतीय दर्शन और साहित्य को केवल धर्म की चारदीवारी से बाँध दिया गया है. वैज्ञानिक होते हुये भी इनका वैज्ञानिक-विश्लेषण नहीं किया गया. यही कारण है कि धर्म में पाखण्ड बढ़ता जा रहा है और प्रगति के लिए दुसरे देशों का मुहं ताकना पड़ता है
....लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से
http://laddoospeaks.blogspot.com/
भाई साहब, मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ. इसी कमी को दूर करने का अपनी तरफ से प्रयास कर रहा हूँ. आप जैसे लोगों का सहयोग, सुझाव समर्थन मिलता रहेगा तो आगे भी कार्य करने कि प्रेरणा, ऊर्र्जा मिलती रहेग. सुझाव और समीक्षा के लिए बुत बहुत आभार.. फिर मिलेंगे
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