हम बातें तो बड़ी-बड़ी,धर्म और दर्शन की करते हैं;
"ईशावास्य इदं सर्वं" का उद्घोष और जगत में,
"खुदा की नूर" देखने की वकालत खूब करते हैं.
परन्तु जन्मे-अजन्मे बच्चे में,वृद्धों और मजबूरों में,
अपंग - अपाहिजों में, उसी ईश्वरत्व और
'खुदा के नूर' को देख क्यों नहीं पाते ?
हम इतनी सी बात समझ क्यों नहीं पाते कि
कृति के बिना आकर्षक शब्दों का मूल्य कुछ भी नहीं.
शब्दों का मूल्य,उसके अर्थ और आचरण में सन्निहित है.
आचरण की सभ्यता के ये तथाकथित पुजारी,
ईश्वरत्व के संवाहक होने का दावा तो बढ़-चढ़ कर
करते हैं; परन्तु वह दीखता क्यों नहीं आचरण में?
और पग-पग पर फरिश्तों का गुणवान करने वाले,
आज शैतान के तलवे चाटते नजर क्यों आरहें है?
ये महानुभाव पुष्प-दीप तो सरस्वती चित्र पर
चढाते हैं, परन्तु हंस के नीर-क्षीर विवेक की जगह,
'लक्ष्मी-वाहन' के, आदर्श को क्यों अपनाते हैं?
और मजा यह कि वक्त आने पर साफ़ मुकर जातें हैं.
इनकी नैतिकता धन में, आदर्श धन में, ईमान धन में,
और राष्ट्रीयता, मानवता, सब धन में, बह जाती है.
अरे ! ये तो धन-पशु हैं, और कुछ तो उनसे भी बीस हैं;
पूरे नर-पिशाच हैं - ये अपने भाई-बन्धु, राष्ट्रीयता तक,
नहीं पहचानते, इस बात की हमें बड़ी टीस है.
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