दर्द -
झुंझला देता
झुलसा देता
गला देता
जला देता
और कभी यही
अंतर्मन को
धीमे - धीमे
थपकी डे
सहला देता
बहला देता
सैर न जाने
कहाँ - कहाँ की
पल भर में ही
ये करा देता ..
झुंझला देता
झुलसा देता
गला देता
जला देता
और कभी यही
अंतर्मन को
धीमे - धीमे
थपकी डे
सहला देता
बहला देता
सैर न जाने
कहाँ - कहाँ की
पल भर में ही
ये करा देता ..
डॉ जयप्रकाश तिवारी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-08-2016) को "भाव हरियाली का" (चर्चा अंक-2432) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "भूली-बिसरी सी गलियाँ - 8 “ , मे आप के ब्लॉग को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteThanks
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