हो व्यथा की वेदना या अंतर का उल्लास
पीड़ा मन की तीव्र हो या प्रियतम की चाह
अति चंचला हो भावना जब हिल्लोर लेती है
वही तब बूँद बनती है, वही तब गीत बनती है।
जब खुले आकाश से भी सुमन झरते हैं
या उसी आकाश से कुछ सितारे टूटते हैं
आसमां की इस दशा का उपहास होता है
व्यथा से अंतर्मन में काव्य प्रकाश होता है।
कहीं भी छूट न जाए व्यथा की यह कहानी
चीत्कार उठता है यही बचपना हो या जवानी
व्यथा की अश्रुओं को भावना के गेह में रख कर
सदा जलता रहा है रात्रि में भी डीप वह बनकर।
हमारी आस्था के बल को, विश्वास वैभव को
कहीं चुरा न ले यह तमस, बन कुटिल एक चोर
जब कभी भी, जब कहीं भी कुछ ऐसा होता है
तब आस्था की दीप्ति-विश्वास को गीत ढोता है।
यह 'दीप' भी एक गीत है जो गुनगुनाता है
यह दीप ही मन से अँधेरा दूर भगाता है
दीप हो या गीत, नियति है एक सी इनकी
ज्योति का संचार, सनातन रीति है इनकी।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-06-2016) को "दो जून की रोटी" (चर्चा अंक-2362) (चर्चा अंक-2356) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार इस सम्मान और स्नेह के लिए
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