अपलक निहारता रहा, मैं तेरी पलक को
फिर भी रहा तरसता, तेरी एक झलक को
फिर भी रहा तरसता, तेरी एक झलक को
खिंजा सी छा जाती है, झुकती जब पलक
बसंत बहार आ जाती है, उठती जब पलक
बसंत बहार आ जाती है, उठती जब पलक
इन पलकों पे वारूँ, जन्म जन्म की पलक
बिन पलकों के भी देखूँ, मैं तेरी यह पलक
बिन पलकों के भी देखूँ, मैं तेरी यह पलक
ऐ पलक ! तेरी पलकों मे कैसी है ये पुलक ?
लाख छुपाओ छलक ही जाती है यह पुलक ।
लाख छुपाओ छलक ही जाती है यह पुलक ।
तेरी पलकों की पुलक मे बिछी कितनी पुलक?
कुछ समझ भी है दुनिया की? ओ मेरी पलक !
कुछ समझ भी है दुनिया की? ओ मेरी पलक !
अपलक की पलक मे ही है, सृष्टि की झलक
मैं तो ढूँढता उसे, रवि- शशि हैं जिसके पलक
मैं तो ढूँढता उसे, रवि- शशि हैं जिसके पलक
इन पलकों मे ही डूबी रहती है मेरी यह पलक
क्या देखूँ? क्यों देखूँ और कोई दूजा पलक ?
क्या देखूँ? क्यों देखूँ और कोई दूजा पलक ?
तू वो तो हरगिज नहीं, जिसे मन पूजता मेरा
तू वो भी नहीं, जिसके लिए तन जूझता मेरा ॥
तू वो भी नहीं, जिसके लिए तन जूझता मेरा ॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी
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