आया आषाढ़ बढ़ गया ताप
उठी हवाएँ गगन मे तेज तेज
मन मे हलचल उससे भी तेज
घिर आई घटाएँ चहुं ओर से
स्मृति पटल छाये घनघोर मेघ,
मन कितना चंचल मनचला है
जा पाहुचा अतीत की उस घड़ी मे
जहां भीगे थे हम दोनों आषाढ़ मे
बादलों की जलधारा मे ही नहीं
भावों की वर्षा, शब्द फुहार मे ।
बसे थे कितने ही मोहक इरादे
संवेदनाओं की बलखाती लहरों मे॥
-2-
..............दशकों बाद ..........
इस स्मृति ने इतनी हलचल मचाई
अब लौट आया अतीत से वर्तमान मे
रिमझिम फुहारें बड़ी बूंदों मे बदल गयी
बरसात ने पकड़ लिया ज़ोर और मैं
भीग गया पूरा ही आषाढ़ की बरसात मे,
ठीक उसी तरह जिस तरह भीगे थे तब
हो गया था तन – मन गीला मेरा
तब उस समय भी, औए आज अब भी ।
हाथ मे मेरे वर्षा से बचाव का अस्त्र
यही कलम तब भी थी... अब भी है
लेकिन कलाम वर्षा से बचाती कहाँ है
यह तो और भिगो देती है, अंदर तक॥
-3-
सहसा विजली ज़ोर से कौंधी-कड़की
... इस चमक मे मुझे साया सी दिखी
वो साया ... तुम थी, भला भूलता कैसे?
दौड़ कर तुझे पकड़ लिया, तू भाग न पाई
कृशकाय-बदन, धँसी-आँखें, पिचके कपोल
कुछ कहो या न कहो, खोल दी सारी पोल
एक अलगाव ने कितना बदल दिया तुम्हें
पूछने पर कुछ बताती नहीं, हो गयी हो मौन
ऊपर से दिखता नहीं, कोई घाव-चोट- मरहम
हैरान हूँ, विस्मित भी, कैसी हो गयी हो तुम
अब न तुझे वर्षा भिगो पाती, न ही कलम
यह कलम तो मदहोश थी तुम्हें लिखने मे
कब सोचा इसने, देखने की तुम्हें वास्तव मे?
-4-
तुम्हें ‘मल्लिका’ का किरदार बहुत पसंद था
और समय ने सचमुच मल्लिका बना दिया
मैं मातृगुप्त बनकर राज सुख भोगता रहा
‘मेघदूत’ और ‘ऋतुसंहार’ ... ही लिखता रहा
कभी सुना था इतिहास अपने को दुहराता है
सचमुच इतिहास अपने को दुहराता है ....
ऐतिहासिक मातृगुप्तनिभा नहीं पाया था
न राज-धर्म, न प्रिय-धर्म, न प्रेयसि-धर्म
लेकिन यह मातृगुप्त विधिवत निभाएगा
राज-धर्म भी, प्रिय-धर्म भी, प्रेयसि-धर्म भी
आज इतिहास अब ...एकदम बदल जाएगा
जब एश्वर्य की सिंदूरी रेखा मांग सजाएगा
औए कभी अट्टहास करने वाला यही समय
अब भांति – भांति के मंगल गीत गाएगा॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी
No comments:
Post a Comment