एकदिन पूछी परछाई मुझसे क्यों ऐसा काम किया करते हो?
सर्वस देकर, खुद को खोकर, कैसा व्यापार किया करते हो?
बाहर – बाहर हँसते रहते हो, पाकर एकांत रुदन करते हो
उलझे रहते धागे सुलझाने मे, अपनी उलझन उलझे रहते हो
जीवन कब सुलझाओगे अपना? जा देखो तब उलझे रहते हो
मिलती प्रवंचना, पत्थर मिलते, फिर भी नित हँसते रहते हो
सर्वस देकर, खुद को खोकर, कैसा व्यापार किया करते हो?
पगली ! स्वभाव यह मानव का, सुख पाने को कर्म करता है
जिसको जो लगता है सुखकर, उसे स्वभाववश किया करता है
जो कुछ भी पाया है मैंने अबतक, इस जग से ही तो पाया है
पहले चाहे जितना भी भरमाया, पथ इसने ही तो दिखलाया है
क्यों करूँ स्वयं वैसा व्यवहार ? जिसने चोटिल किया रुलाया है
जो कल्मष - कषाय इस जीवन का, इस जीवन मे ही धो डालूँ
अभिलाषा ही कारण है दुख का, इसे नयन नीर से छर करता हूँ
जग कर ले मुझसे अपने मन की, मैं भी मन का किया करता हूँ
इसे प्यार कहो, व्यापार कहो, सुख खातिर यह कार्य किया करता हूँ
ऐसे ही व्यापार किया करता हूँ, इस जग से प्यार किया करता हूँ
लिखा इस प्यार के भाल पर ही, खाना पत्थर, पीना प्रवंचना
क्या मैं इससे बच पाऊँगा ? चाहूँगा क्यों इससे मैं बचना ?
क्या सचमुच ही इतनी भोली हो? इतना सा भी नहीं जानती?
वंचनाओं की सीढ़ी से ही तो, यह प्यार शिखर चूमा करता है
पत्थर की चोटें खा-खाकर ही, यह प्यार शिखर चढ़ा करता है
चोटिल काया की रक्त धार से, विजयी तिलक लगा करता है।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
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