(गतांक से आगे .....)
एक बात और,
तुझे पता भी है, क्या होता है –
यह पाणिग्रहण? यह विवाह संस्कार?
कोई खेल नहीं, यह महत्वपूर्ण संस्कार
स्रोत से जुडने का सामाजिक उपक्रम,
दाम्पत्य से होता प्रारम्भ यह क्रम ।
जिस बिंदु से उपजे हैं हम सब
जिस सत्य से भटके हैं हम सब
उसी सत्य से जुडने को, उसी तत्व को पाने को
उसी आनंद मे डूबने को, अंश प्रवाहित अंशी ओर,
संगीत प्रवाहित वंशी ओर, चिति होकर चैतन्य जहाँ,
पुनः सब एक हो जाते हैं, जो थे अब तक
अपूर्ण - अधूरे / संपूर्णता को पाते हैं,
यही है सिद्धांत, यही उपक्रम,
होता पूर्ण यहाँ, संस्कार का यह वैवाहिक क्रम।
मैं इस संस्कार और परम्पराओं की
उर्वरता से आश्वस्त, मंत्रमुग्ध निहारता रहा
अमूर्त सपने को / ढूँढता रहा तेरे ही भीतर
गहराई मे डूबकर अपने को।
पर मुझे क्या पता था?
कि सपने कभी मूर्तमान नहीं होते
स्वप्न, स्वप्न होते यथार्थ नहीं होते ।
सच है - मोती सीप मे ही होते
परंतु हर सीप मे तो नहीं होते,
जिसने चखी नहीं स्वाति की एक भी बूंद
वह दृष्टि कैसे देख पाएगी संस्कारित सृष्टि?
संस्कारों का अभाव ही
तुझे नचा रहा / तुझे यहाँ से वहाँ भटका रहा।
क्या हुआ यदि - बंगला गाड़ी नहीं दे पाया तुझे
शिमला, शिलोंग नहीं घुमा पाया तुझे
तुम्हारे रहने विचरण के लिए आखिर
क्यों छोटा पड़ गया स्नेहिल विशाल हृदय?
माना कि पैसे मे होती है शक्ति
लेकिन उतनी नहीं, तूने समझी है जितनी,
मैं लाचारी का मारा, बेकारी का मारा
कटौती कर-कर के दी हर संभव सुविधा...
क्या याद है तुम्हें?
कितने हर्षोल्लास से लाया था उस दिन
मंदिर से प्रसाद... फूलों की वह माला
अपनी पहली-पहली छोटी सी कमाई से,
डिब्बा दिया माँ को, तुम्हें दी थी माला
माँ ने उसे था सिर से लगाया
तूने था उसे, उस खूंटी पर डाला,
शायद अपेक्षा थी तुम्हें आभूषण की
या चमकते मोतियों की माला की।
लेकिन तुम्हें शायद पता नहीं है
मैं भी तैयार करता रहा था देने की
उपहार मे तुझे एक ‘विशिष्ट माला’
हाँ! अमूर्त सी मोतियों की माला
जिसका सुमेरु है -
मर्यादा पुरुषोत्तम-सा ‘एक पत्नीव्रत’
जिसे गढ़ पाया हूँ अथक श्रम से
संस्कार, परंपरा और अध्यात्म से
गूँथा है उसे अरमानों के धागों से,
डरता हूँ.. कहीं तोड़ न डालो तुम
उसे अपने ही इन नासमझ हाथों से।
सोचता हूँ- आज इंसान
और प्याज मे जो गहरा नाता है वह
भोले-भाले इंसान को देर मे समझ आता
है,
खुशहाल-घरौंदे, अटूट-बंधन जब जाते दरक
बाजी जब जाती है हाथ से सरक
तब जाकर होश ठिकाने आता है।
पड़ताल करके भी क्या करोगे अब?
था जिसपर बहुत भरोसा
उसी का नाम बार-बार आता है ।
मत निहारो, एकटक ध्यान से
मत दुलारो इतने अरमान से
किसी को धरती से आसमान तक
न मानो उसे इंसान से भगवान तक,
क्योकि जब उतरती जाएगी
लबादे की एक-एक परत,
हर परत देगी एक अजीब सी टीस
नेत्रों मे भर आएंगे ढेर सारे अश्रु
पहचान नहीं पाओगे, है मित्र या शत्रु
पत्नी है, प्रिया है, पुत्री है या
पुत्र ।
तथापि संस्कारों मे पला बढ़ा
मैं परम्परावादी कैसे नकार दूँ
दायित्व?
मुझे तो निभाना ही है उत्तरदायित्व,
और तुम प्रगतिवादी जहाँ स्नेह-प्रेम
भावनात्मक नहीं वैभवात्मक होता
ऐश्वर्य मे अपनी जगह ढूँढता
इसको ही प्रगति-पुरुषार्थ वह कहता ।
परंपरा मे अंकुरित होता ‘प्रेम’ विवाहोपरांत
अतएव चिरायु होता... ,
दीर्घायु होता जन्म-जन्मांतर
तक।
अंतर देखो न! स्वयं ही
तुम जा चुकी, मैं बुलाने की सोच रहा
तुली हो तुम नकारने पर,
मैं फिर भी स्वीकारने की सोच रहा ॥
याद आती है – माँ,
कृशकाय सी, निस्तेज लेकिन बोलती
आँखोंवाली माँ
माँ को हँसते नहीं देखा / वह कभी रोई भी नहीं
कहाँ से पाया था- यह धैर्य, संतुलन, सामंजस्य?
सोचता हूँ - माँ क्यों थी इतनी सहनशील?
न बहू से लड़ी, न सौत से / न
परिवार से लड़ी, न मौत से,
कभी लड़ी भी तो अपनी जिंदगी से / और यदि तोड़ा भी
तो अपने ही जीवनभर का ढोया संस्कार।
देखो न! संस्कारों की दुहाई देने वाली माँ
एक ही झटके मे बदल गयी थी / तेरी मेरी खुशी के लिए
तो क्या माँ कायर थी? पुरातनपंथी
थी?
कायर होती तो इतना बड़ा निर्णय कैसे लेती?
थी वह जीवटवाली? प्रगतिशील? या क्षमाशील थी?
माखन सी मुलायम थी? या लोहे
की मजबूत कोई कील थी?
अरे! मेरी माँ कितनी बलशाली थी, कितनी स्वाभिमानी भी,
साथ ही साथ मर्यादा की कितनी बड़ी रक्षक – संरक्षक भी।
आखिर वह लड़ती भी तो किससे? नारी होकर एक नारी से?
पत्नी होकर कथित पति से? दुनियावाले तो देते ही हैं गाली
क्या वह भी दे गाली? किसी नारी
को? किसी पुरुष को?
बात यदि अधिकार की है तो नहीं चाहिए उसे छद्म
अधिकार,
यह दृढ़ आत्मबल है उसका, यह साहसिक निर्णय है उसका ।
क्या करेगी वह ऐसे आधे-अधूरे पति को पाकर भी
जिसके पास विवेक नहीं, संवेदना, साहस और शक्ति नहीं ॥
सोचता हूँ-
क्या मेरे पास विवेक नहीं, संवेदना, साहस और शक्ति नहीं?
गुंज रही है माँ की शिक्षा, माँ का संस्कार, माँ की ही सीख
पुरुष और स्त्री, दोनों ही
तो हैं, आधे-आधे, एक अर्द्ध
वृत्त
अपनी–अपनी अर्द्ध परिधि / अर्द्ध सोच, अर्द्ध विचारों के साथ
दोनों निहारते भी हैं, ढूंढते भी हैं / एक दूसरे को ललक के साथ
बसाते हैं, घर-परिवार भी
उत्साह से / फिर आता कहाँ से यह भाव
विजित होने या विजित करने का? दमित होने या दमित करने का?
कहती औरत, उसे नचा रहा यह पुरुष
/ उँगलियों पर सदियों से
पुरुष कहता, यह स्त्री नचाती
आ रही / उसको भृकुटी निक्षेप से
छोड़ो भी, बहुत हो चुका
नाचना-नचाना / कब होगा बंद यह ड्रामा?
यह प्रश्न आधुनिक नहीं, परंपरागत है / नया नहीं, है बहुत पुराना
परंतु अनुत्तरित ही रहा है अब तक / और रहेगा न जाने
कब तक?
कहा जाता है- परंपरागत मे स्त्री / सुरक्षित अधिक
थी, स्वतंत्र कम
आधुनिकता के चोले मे, वही स्त्री
/ स्वतंत्र अधिक है, सुरक्षित कम
तय करना है अब स्त्री को / उसे चाहिए क्या, सुरक्षा या स्वतन्त्रता?
अथवा सुरक्षा और स्वतन्त्रता दोनों / सहभागी बनकर पति-पुरुष
का?
और... अब तुम!
मेरी प्रिया भी, अर्द्धांगिनी भी, मान-मर्यादा भी, सबकुछ एक साथ
तेरी चाहत है - सितारों को पाना / अपने पंखो से गगन मे उड़ना
प्रिये! कौन समझाये तुम्हें? जिस वैभव, ऐश्वर्य के पीछे तू भाग रही
वही तो तुझे बंधन मे डाल रहा / छेद रहा अंगों को, बाहर-भीतर से
मन को भी करके भ्रमित अब यह / तेरा नारीत्व सिहासन छीन
रहा
जिसपर था तुझे अभिमान बहुत / वह तेरा मातृत्व
सिहासन छीन रहा
तेरी चाहत है - तारों को पाना / अपनी पंखो से अन्तरिक्ष को लांघना
माना पंख उड़ने के लिए होता / जोश कुछ कर गुजरने के
लिए होता
उड़ो! मगर श्रेष्ठता की खोज मे उड़ो / अंबर के कोने -
कोने तक उड़ो
यह स्वतन्त्रता तुम्हारी, अधिकार तुम्हारा / किन्तु जोश मे होश भी रहे
ऐसा न हो ‘संपाती’ बन जा / औधे मुँह गिरके, दो दाने को तरस जा ।
यह नकारात्मकता नहीं, अवरोध
नहीं, टोक नहीं, औचित्य का प्रश्न है
सोचने के लिए विवेक भी होता / और इसे देता वही, जो पंख है देता,
डरती क्यों हो इस सरल प्रश्न से? / हो लो संतुष्ट इस सरल प्रश्न से
पाओगी तुम अकेले नहीं, साथ बहुत से / बदलने को तैयार बहुत से
गगन चूमना जोश है, बुराई
नहीं / तारों की चाह उमंग है बुराई नहीं
बुराई वांछित तैयारी के अभाव मे है / आवेश मे संपाती बनने मे है
सफलता ‘हनुमत संस्कार’ पाने मे है / तू आ जा,
शुभकामनायें ले जा
प्रशिक्षण से झोली भर जा / परिवार-राष्ट्र का नाम उज्ज्वल कर जा
मुँह न छिपा दुनिया से / आधिकारिक रूप से तलाक पत्र
ले जा ।
तुम यह न समझना उदास हूँ / यह न समझो हताश हूँ, निराश हूँ
मैं भी खुश हूँ क्योकि तू खुश है / खुशी मे मन के भीतर फूटते है
गीत और संगीत, गजल और गान / मैं
भी तो देखो गुनगुना रहा हूँ
पूरे लय मे एक फिल्मी गीत – “कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे
तड़पता हुआ जब तुम्हें छोड़ दे / तब तुम मेरे पास आना प्रिये ...॥
- डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी
अद्भुत भावमयी रचना...
ReplyDeleteछोड़ो भी, बहुत हो चुका नाचना-नचाना / कब होगा बंद यह ड्रामा?
ReplyDeleteयह प्रश्न आधुनिक नहीं, परंपरागत है / नया नहीं, है बहुत पुराना
परंतु अनुत्तरित ही रहा है अब तक / और रहेगा न जाने कब तक?
बहुत सारे प्रश्न उठाती सशक्त रचना...सही है अब भीतर जाकर मंथन करना होगा हर एक को...
अंतर देखो न! स्वयं ही
ReplyDeleteतुम जा चुकी, मैं बुलाने की सोच रहा
तुली हो तुम नकारने पर,
मैं फिर भी स्वीकारने की सोच रहा ॥लाजबाब,सशक्त प्रस्तुति...!
RECENT POST -: पिता
अंतर को छूती है रचना ... भावमय .. अध्बुध ...
ReplyDeleteबहत बहुत आभार इस प्रेरक टिप्पणी के लिए
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