Tuesday, April 16, 2013

पगडंडी पर कौन यह, मानव या महामानव?



मन में उठे विचार जहाँ
तन उसपर पाँव धरे,
पग चले चार, जिस मग पर हम
बन गयी वही तो - पगडण्डी.
जीवन भी तो यह -एक पगडण्डी.

धारा परिधि के किसी कोण से
किसी प्रान्त, जनपद या ग्राम से,
किसी विन्दु या सिन्धु तीर से
होकर अग्रसर, कुछ गिरते-पड़ते,
कक्षाओं - परीक्षाओं की बाड,
कर के किसी तरह से पार.
बढा ही था जब नजर गड़ाए
लक्ष्य पर अपनी दृष्टि अडाए.
पहना दी गयी बेड़ियाँ पकड़ कर.
और दिया गया नाम रिश्तों का.
एहसास कराया गया फ़र्ज़ का,
अपने दायित्व और कर्त्तव्य का.

बेड़ियों से नाता, कोई नया तो नहीं था
थीं बेड़ियाँ, हाथ पावों में पहले भी,
लेकिन था उसमे सुख और संतोष भी.
उतार चढ़ाव तो तब भी था,
पर दुराव कहीं भी नहीं था वहाँ.
आज के रिश्तों में घर हो या बाहर
गर्मजोशी नहीं, अजब ख़ामोशी है.
जब कभी टूटी यह ख़ामोशी...
निकलीं लपटें, फूटी ज्वाला
और रिश्ते जलकर हो गए राख.

जो धीर थे, गंभीर थे संभले ..
अब झाड़ी राख और खड़े हुए.
थीं बेड़ियाँ अब भी वहीं,
आकर बदल गए थे किन्तु-
कुछ मुड़ी हुयी, कुछ ऐंठी सी,
कुछ चपटी सी, कुछ कपटी सी.
बेड़ियों में धिसाई-चिकनाई नहीं,
अब एक अजीब सी रुसवाई थी...
आ गया है, खुरदुरापन-कटीलापन.
जब देखो नया घाव बनाती हैं,
पुराना सूखेगा क्या, नासूर बन जायेगा
जो ....अब.... जीवन भर... सताएगा.

जीवन तो यह गतिशील है
समय की धारा में गोता खाते,
काया भी बह ही रही है...
उम्र भी कट ही रही है...
बस, एक प्यास है जो
बढती ही जा रही है नित्य प्रति.
कोई आस है, इसलिए प्यास है.
बुझानी है प्यास तो -
रिसते हुए रक्त को चाटना होगा,
घावों को बार-बार कुरेदना होगा.

जिसे पाला था, फुंफकारता है..
जिसे दूध पिलाया, डंसता है..
जिसे रोटी दी, वह नोचता है
फिर भी मन उन्हीं की सोचता है.
पगडंडियों पर वह भटकता है.
रिश्ते पावों फिर भी चलता है..
हो गयी है इतनी जर्जर काया,
कुत्ते अब आस लगाये हैं,
लार बहुत टपकाए हैं..
उड़ते संग-संग चील-गिद्ध
अब वे भी तो नजर गड़ाए हैं.

जाने है किस मिटटी का बना यह?
पगडंडी पर कदम बढ़ाये है अब भी,
चलते जाये है यह, अब भी., अब भी. .
जिजीविषा उसमे इतनी भरपूर
आखिर मिल गयी कहाँ से उसको?
साथ में उसके मशाल कबीर की?
या बापू की कोई सत्याग्रही लाठी?
गीता रहस्य तिलक की, या गीतांजलि?
विवेक-चूडामणि या शुक्ल की चिंतामणि?
नानक का गुरुग्रन्थया तुलसी का मानस?
दिव्यजीवन, या उर्वशी या कामायनी?
अथवा आचार्य मम्मट का काव्यप्रकाश?
जिसने ला दिया जीवन में अप्रतिम उल्लास.

क्या पढ़ लिया उसने महादेवी को -
इस पथ का उद्देश्य नहीं है,
श्रांतभवन में टिक रहना.
किन्तु पहुचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं है.....
सीमा परिधि के पथिक को नमन!
इस नए पथ अन्वेषक को नमन!
पथ और पथिक, दोनों को नमन!!

           -  डॉ. जयप्रकाश तिवारी भरसर, बलिया

3 comments:

  1. वाह !!! बहुत बेहतरीन भावमय रचना,आभार,जय प्रकाश जी
    RECENT POST : क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता.

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  2. कविता इतने कोने में है. कि शुरुआती लाइने पढ़ने में नहीं आ रही हैं..कृपया ध्यान दिया जाए...और ठीक किया जाए ताकि पाठक पढ़ सके..

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