होता हर 'शब्द' अ-नाम गुमनाम,
देता है - 'अर्थ' और 'भावार्थ' ही
उसे जाना पहचाना विशिष्ट नाम.
निश्चित एक रूप-स्वरुप-पहचान.
ये संयुक्त और विलग हैं कैसे?
अर्द्धनारीश्वर, शिवशक्ति हैं जैसे.
ऊर्जा और पदार्थ हैं जैसे.
एक सिक्के के दो पहलू जैसे.
शब्दों का सम्प्रेषण तो
होता है अदृश्य अरूप.
भाव बोध दिलाते उसे संज्ञा
गद्य का, पद्य का, हास्य का
श्रृंगार - वियोग - वीरता का,
करुणा - विभत्स या रौद्र का.
शब्दों की अपनी मर्यादा
और उनकी उपयोगिता ही,
बढ़ाती और घटाती है,
व्यक्ति मान और सम्मान.
मिलती है उसी से -'जंजीर',
सोने की भी, लोहे की भी.
शब्द संयोजन, और
गरिमामय प्रस्तुति ही,
किसी ग्रन्थ को महनीय
और पूजनीय बना जाता,
किसी को नदी - नाले में,
जाने का कारण बन जाता.
शब्द तो हैं - अनमोल,
अमूल्य, ह्रदय कोश आगार.
जब भी निकले यह मुख के द्वार ,
कर लो फिर पुनः - पुनः विचार.
हो संगृहीत अर्थ, उसमे बस इतना,
हो आवश्यकता उनकी जब जितना.
बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteआभार आप का, सकारात्मक एवं उत्साहवर्द्धक तिपन्नियों का.
ReplyDeleteशब्द ब्रम्ह है .इसमें अपार शक्ति है.ek बात लग जाये तो जीवन बदल जाये ! गंभीर रचना के लिए साधुवाद
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! गणतंत्र दिवस की बधाई!
ReplyDeleteसभी आगंतुकों का आभार, और उनके सकारात्मक विचारों का स्वागत
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