घूमा हूँ खूब, इन शब्दों के अरण्य मेंरचनाओं ने ले लिया अपनी शरण में.तभी से उन शब्दों को तोलने लगा हूँअभीतक था मौन, अब बोलने लगा हूँ.सोचा! चलो मन कुछ शांत हुआ, परन्तु इस परिभ्रमण उसे विश्रान्ति कहाँ? एक आवाज अब भी गुंजित हो रही थी.. एक बेहद दर्दीली आवाज, सिसकती हुयी कराह... वह भी उपलाम्भों से भरपूर – ‘कूड़ेदान में मिलती / मासूम बेटियों के समाचार / कहीं भीतर तक नहीं उतरते अब / नहीं उठती है मन में सिहरन भी / और न ही कांपती है हमे आत्मा / बड़ा विशाल हृदय है हमारा / और स्वीकार्यता की तो कोई सीमा ही नहीं / कभी रीति–रिवाज, कभी दान-दहेज / अनगिनत कारण हैं हमारे पास / बेटियों के कूड़ा समझ लेने के’. सोचता हूँ क्या हो गया है समाज को? फिर मन तो ठहरा मन, कब कहाँ कुलांच मार दे उसका क्या भरोसा? तर्कशील और तुलनात्मक विवेचन का आग्रही तर्कशील मन तत्क्षण ही तर्क कर बैठता है – इस प्रकार की अधोगामी विकृति धरती पर ही है या और भी जगह? अभी मानव न तो मंगल पर जा पाया है. न चंद पर ही बस पाया है. ले दे कर अम्बर-असमान तक उसकी दृष्टि पहुचती है और वह लगत है तुलना करने. कौन जाने अपनी इस कुकृत्य की गहराई मापने की दृष्टि से, या इस कुकृत्य का समाधान ढूढने दृष्टि से?
लेकिन वहाँ असमान में भी ऐसी ही विकट स्थिति है. वहाँ भी धरती की ही तरह सभ्य, सुशील, सतवी, राजसी और तामसी प्रवृत्ति और प्रकृत्ति के विभिन्न प्रकार के मेघ हैं. ये राजसी और तामसी प्रवृति के मेघ प्रेम की आड में, वासनाओं के उन्माद में करते हैं उन्मुक्त प्यार, प्रणय व्यापार.. -‘क्या इसी प्रणय की परिणति / नहीं है – यह ‘बिजली’ और ‘शब्द’ / बादल सँभालते क्यों नहीं अपनी संतान? / क्या हैं वे संस्कृति विहीन, सभ्यता से हीन / जो जन्मते ही फेंक देते हैं नीचे / अपनी संतान धारा पर / कूड़ा समझ के... बिजली विरोध करती है तड़प कर / शब्द करता है विरोध गरज कर / लेकिन पुकार उनकी सुनता ही कौन? यानी की यह विकृति, यह समस्या वहाँ पर भी इसी रूप में है. इसमें ‘जिज्ञासा की बात यह है कि / संवेदनहीनता, स्वच्छंदता / और अनैतिकता का / यह पाठ किसने किसको सिखाया /इंसान ने बादल को / या बादल ने इंसान को? सभयता के बनने- बिगड़ने का प्रश्न सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गवेषणा का प्रश्न है. इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिसे हम निराजड़ मानते हैं, स्वयं अपने को विवेकी, संवेदी और चैतन्य मानते हैं. लेकिन संवेदना और चेतना के धरातल पर तो यह मेघ कई गुना श्रेष्ठ निकला मानव समज से. क्योकि- ‘बादल तो फिर भी प्रायश्चित करते हैं / वे तो इस आचरण पर फिर भी रोते हैं / आत्मग्लानी कि बरसात करते हैं / और धरती को उर्वरा बना जाते हैं / लेकिन इंसान भूल गया है करना / आत्मग्लानि और पश्चाताप / आखिर क्यों? कब ? और कैसे?सम्बन्ध पुरुष और स्त्री का. होता है बड़ा कोमल और भावनात्मक. जिसमे उठती हैं लहरें उमंग की, प्यार की, हास की, परिहास की. जैसे करते हैं पक्षी कलोल, कभी जल में तैरते, हवा में उड़ते. जमी पर फुदकते, घोसले में दुबकते. पुरुष तो होता जल रूप वह अपने शोणित से करता है अभिसिंचित, उर्वरा मिटटी को, नारी कोख को. करता है चरितार्थ, और देता है एक अर्थ, उसके नाम को, मान को, सम्मान और अभिमान को. स्त्री भी फूली नहीं समाती, अर्थवत्ता पर, इस अर्थबोध पर. वह है गर्विता और आह्लादित.... अब है, सिंचित करने की उसकी है बारी. वह सींचती है पुरुष के सत्व को. पोषित - पल्लवित करती है, उसके तत्त्व को, पुन्सत्त्व को. पुरुष और स्त्री के स्नेहिल वाटिका में, खिलते हैं वहाँ - पुष्प, सहस्रदल कमल. जो सुगन्धित करते हैं, दोनों कुल को. तृप्त - संतृप्त करते हैं, सात पीढ़ियों तक को.परन्तु यही फूल, आज क्यों बन गया है शूल ? आज पुरुष का पुन्सत्त्व और माँ की मातृत्व, क्यों कर रही है एक भारी भूल? भयंकर भूल ? विज्ञान की एक जांच मशीन ने हिला दी है, बहुत गहराई तक पूरे समाज की चूल. लिंग अनुपात की बढती विसंगति, आज सभी को मुह चिढाने लगी है. माँ हो या पिता, उनकी भावनाओं की, कोमलता पर, बार - बार प्रश्न उठाने लगी है. हां! भावों की कोमलता - स्निग्धता – ममता आज क्रूरता और हिंसा में, क्यों बदल गयी? उससे इतनी वितृष्णा - घृणा आखिर क्यों? जो है अपने ही खून का सरताज? जब चर्चा चलाई, की पड़ताल, तो बात दहेज़ प्रथा की सामने आई. क्या दहेज़ का दानव क्या विधि की रचना है, जिसे हम हटा नहीं सकते? मिटा नहीं सकते? आखिर हमने ही तो कभी शुरू किया होगा उसे, नाम इसका, 'उपहार' या 'व्यवहार' देकर. क्या आज हम इस दहेज़ दानव का, समूल नाश नहीं कर सकते? वह कौन सी चीज है जो मानव, चाहे और... कर न सके ? परन्तु पहला कदम कौन उठाएगा? सब देख रहे एक दूजे को. क्या कोई अजूबा आसमा से आएगा, जो राह हमें दिखाएगा? पहला कदम हमारा होगा, तुमको भी सभी को साथ निभाना होगा. यदि रहना है मानव जाति को धरती पर. यह कदम अंततः सभी को उठाना होगा. हाँ, यह कदम अंततः सभी को उठाना होगा.क्रमशः ....
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बहुत सुंदर प्रस्तुति .... आभार
ReplyDeleteप्रभावी प्रस्तुति ||
ReplyDeleteमैं नतमस्तक हूँ इस अरण्य में गुरु वशिष्ठ की तरह आपको देखकर - नमन
ReplyDeleteरश्मि जी,
Deleteआपकी भावनाओं का समादर. लेकिन मुझे द्रोणाचार्य और वशिष्ठ जैसे ऋषियों की श्रेणी में रखें. मुझे बहुत संकोच हो जाता है.साहित्य और चिंतन क्षेत्र का विद्यार्थी ही बने रहना चाहता हूँ. यह मेरे साहित्यिक जीवन की पहली समीक्षा है और ब्लोगिंग का भी अनुभात तीन-साढ़े तीन साल का ही है. अभी तो बहू कुछ सीखना शेष है. बहत-बहुत आभार इतना सम्मान देने के लिए.
behtareen prastuti....
ReplyDeletewaah, prabhavshali prastuti ke liye badhai
ReplyDeletebahut hi acchi
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति .... आभार
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति .... आभार
ReplyDeleteसभी विद्वत समाज को ब्लॉग पर पधारने और उत्साह वर्धन हेतु बहुत- बहुत आभार.
ReplyDeletesunder prstuti
ReplyDeleteThanks
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