लगता है ऐसा?
जैसे यह रचना
मेरी नहीं, तेरी है.
यह संवेदना
मेरी नहीं, तेरी है.
ये एहसास,
ये अनुभूतियाँ
ये दर्द, ये उपहास
और यह परिहास
यह रंग- रास,
साज-आवाज
ये मेरे नहीं.
सब के सब तेरे हैं.
लेखनी तो
है मेरी जरूर,
उँगलियों में
फंसी हुई अब भी.
लेकिन शब्द,
भाव, उदगार.,
मेरे कदापि नहीं,
ये तो तेरे हैं.
यह हूक ...
और उल्लास,
यह उमंग
और तरंग...
ये मेरे नहीं,
सब तेरे हैं.
मैं तो केवल;
निहार रहा था,
चित्र में तुझे.
मंत्रमुग्ध होकर
दर्शक सा, दूर से.
अनवरत लगातार,
न जाने कब से?
उंगलियाँ तो यूँ ही,
बस हिल रहीं थीं.
थिरक रही थी,
फिसल रही थी...
और यह लिखावट
है किसकी?
तेरी है.? नहीं.. मेरी है..,
मेरी है...?
नहीं - नहीं.., तेरी ही है.
पहले तो
ऐसा नहीं था.
तेरे और मेरे
लिपि में भेद था,
भाषा में भेद था,
शैली में भेद था.
सोच में भेद था,
संवेदनाओं में भेद था.
रुचियों और
अनुभूतियों में भेद था.
इस भेद ने ही तो
हमें अलग किया था.
भेद यह सारा
मिटा कैसे?
सब सिमट गए
आपस में कैसे?
तू मुझमे
रंग गयी हो?
या मैं..
तुझ में रंग गया?
ऐसा कब हुआ?
यह क्या गजब हुआ?
हुआ सब कुछ....,
और हमें बोध तक नहीं.
मुझे कुछ होश तक नहीं.
दरवाजा तो बंद था,
अब भी यह बंद है
आयी किधर से तुम?
गयी हो किधर को तुम?
जब अपने से, अपनों से ,प्यार हो जाता है ऐसा ही होता है ,मेरा उनका उनका मेरा हो जाता है डॉ.साहब बहुत सुन्दर परिकल्पना का अहसास कराया ..... होली की बहुत -२ शुभकामनायें /
ReplyDeleteJAB KISI KA RANG KISI PAR CHADH JAYE TO USKE LIYE N SIDHI KI JARURAT HAI NA KISI KAPAT KI....BAS YE ASAR AISA HI HOTA HAI....
ReplyDeleteTERE RANG ME RANGI HUN SAANWARIYA...
LOG KAHTE HAIN MUJHKO BAAWARIYA...
TABHI TO KAHTE HAIN.
दरवाजा तो बंद था,
ReplyDeleteअब भी यह बंद है
आयी किधर से तुम?
गयी हो किधर को तुम?.....
होली की बहुत२ बधाई शुभकामनाए...
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