सायंकाल की रक्तिम लालिमा
धरती की छिट-फुट हरीतिमा
के मध्य नीले आकाश में,
लय में पंक्तिबद्ध उड़ते हुए पंछी
जब मचाते हैं कोलाहल और
करते हैं - सामूहिक कलरव,
तो यह मात्र कलोल नहीं होता.
होती है उसमे सम्मिलित वह ख़ुशी
जो अपना पेट जाने भरने के बाद
लाते हैं चोंच में भरकर बच्चों के लिए.
अपना पवित्र दायित्व समझकर,
ममता के पवित्र बंधन में बंधकर.
कहीं रुकते नहीं, किसी दूसरे गाव में,
अजनवी बाग़ में, अजनवी घोसले में.
परन्तु,
इंसान का जब भी भरा होता है
पेट और भरी होती है - दोनों जेब;
वह जा घुसता है नामी होटलों में.
किसी अजनवी आशियाने में....
अजनवी लोगों के बीच पाने को ख़ुशी.
आखी वह ख़ुशी क्यों नहीं मिल पाती
उसे अपने ही भरे - पूरे परिवार में...?
क्यों बहक जाते हैं उसके कदम?
क्या है यह आधुनिकता या मजबूरी?
क्यों है वहाँ प्यार और स्नेह का अभाव?
क्यों है कडवाहट दाम्पत्य जीवन में?
क्यों है वह असंतुष्ट अपनी ही संतानों से?
कब रुकेंगे उसके पाँव बहकने से...?
कब बांटेगा वह अपनी प्रसन्नता,
अपना सुख - दुःख अपनों के बीच?
कब पंछियों जैसे हुए..गीत गाते ..
गुनगुनाते वह लौटेगा अपने नीद में?
आखिर कब..? आखिर..आखिर कब...?
मानव को बहुत कुछ प्रकृति के पशु पक्षियों से सीखना चाहिए।
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति।
इंसान का जब भी भरा होता है
ReplyDeleteपेट और भरी होती है - दोनों जेब;
वह जा घुसता है नामी होटलों में.
किसी अजनवी आशियाने में....
बहुत हीं उम्दा प्रस्तुति।
Aadarniya Tiwari ji, prastut rachana se bhut kuchh
ReplyDeleteachchhiseekh sikhane ko milta hai. a
Aapne sarvocch star ki bat pashu pachhiyo ka ullekh dekar saralta ke sath kah di hai aisi sundar rachana ke liye ham hriday se atyant aabhari hain jisse samaj ko shikchha leni chahiye !Is samasya ka nidan dhoodhna chaahiye.
Pranaam !
कब बांटेगा वह अपनी प्रसन्नता,
ReplyDeleteअपना सुख - दुःख अपनों के बीच?
बहुत सार्थक और सारगर्भित प्रस्तुति..हरेक पंक्ति मन को छू जाती है..बहुत सुन्दर
संशोधन:
ReplyDeleteकृपया दूसरे परग्रफ की दूसरी पंक्ति इस प्रकार पढ़ें -
'जो अपना पेट भर जाने भरने के बाद'
आदरणीय मनोज जी,
ReplyDeleteकुश्वंश जी.
रविन्द्र मिश्र जी (Yug)
भाई शर्माजी!
आप सभी का हार्दिक स्वागत एवं आभार, पधारने और सारगर्भित टिप्पणी के साथ -साथ उत्साह वर्द्दन हेतु.. टिप्पणी ही रचनाकार का संबल और ईंधन है. आशा है यह स्नेह हमे मिलता रहेगा..
क्या दर्शन है श्रीमान
ReplyDeleteइंसान का जब भी भरा होता है
पेट और भरी होती है - दोनों जेब;
वह जा घुसता है नामी होटलों में.
किसी अजनवी आशियाने में..
बहुत सुन्दर ज्ञान प्राप्त हुआ आभार
तिवारी जी न जाने कब ...?? इस प्रश्न का तो बेसब्री से इंतजार है शायद वे दिन देखने को ना ही मिलें ..
ReplyDeleteसुन्दर रचना
इंसान -इंसान है ये भूल जाता है -
शुक्ल भ्रमर ५
कब बांटेगा वह अपनी प्रसन्नता,
अपना सुख - दुःख अपनों के बीच?
कब पंछियों जैसे हुए..गीत गाते ..
गुनगुनाते वह लौटेगा अपने नीद में?
आखिर कब..? आखिर..आखिर कब...
आशुतोष जी,,और भ्रमर जी,
ReplyDeleteइस ब्लॉग पर स्वागत और अभिनन्दन आप सभी का.
भरमार जी, वह दिन आएगा और जरूर आयेगा. विकृतिया बनाती हैं, पनपतीं हैं, बढती हैं तो मिटती भी हैं. लेकिन जन जाग्रति औत आत्म चटना, कर्त्तान्य बोध से उसका निदान शीघ्र हो सकता है और इसी के लिए तो हम सभी प्रयासरत हैं. इस बात को आगामी पोस्ट 'आखर ब्लोगर है क्या - एक चिंतन' में चर्चा किया है. और भी बातों पर विचार किया गया है उसमे. पसंद आनी चाहिए.
यह मानव अपनी भौतिक इच्छाओं के कारण अपने नैसर्गिक जीवन को भूल जाता है और इस मायावी संसार में इतना रम जाता है कि अपनी वास्तविकता को भूल जाता है ...आपने बहुत शिद्दत से इस पहलु को उजागर किया है ...आपका आभार
ReplyDeleteकेवल राम जी!
ReplyDeleteस्वागत आपका. जहां तक मैं समझता हूँ यहाँ एकनिष्ठता की कमी, स्नेह और सामंजस्यता का अभाव, ब्रश्ताचार से अर्जित संपत और उससे उत्पन्न विकृत्ति ही जिम्मेदार है. इसके लिए मानव को संवेदी और्नैतिक बनना पड़ेगा, जिम्मेदारी और समझदारी दोनों ही बातें निभानी होंगी. बदलते परिवेश से सामंजस्य भी बिठाना होगा लेकिन उसके लिए नैतिकता और मानवता से समझौता कदापि नहीं. आपके सुझावों का सवागत.और पधारने का आभार.
बहुत सच्चे प्रश्न उठाये हैं आपने इस कविता के माध्यम से, इंसान अपनों से दूर तभी भागता है जब उसे वह जैसा है वैसा ही अपनाया नहीं जाता, अजनबियों में उसे दिखावा नहीं करना पड़ता वह मुक्ति का अनुभव करता है अपनों से हम उम्मीदें बांध लेते हैं...
ReplyDeleteAnita ji
ReplyDeleteThanks for so valuable comments and for your kind visit please.