जीवन के पुरुषार्थ है - चार,
धर्म - अर्थ - काम और मोक्ष.
अर्थ औ काम को शाषित करता
'धर्म - सिद्धांत' और यह 'मोक्ष'.
मानव जीवन सुख की है सरिता,
जब 'धर्म - मोक्ष' के बीच है बहता.
लेकिन जब वह तोड़ता मर्यादा,
'गन्धैला नाला' है जग कहता .
धर्म विहीन आचरण जो होता.
होता प्रतिगामी मर्यादा विहीन.
अर्थ लोभ की लालसा में देखो,
वे भी गिर जाते, जो होते प्रवीण.
चाहिए यदि सुख-शान्ति जीवन में,
चत्वारि पुरुषार्थ को मानना होगा.
धर्म और मोक्ष के कगार बीच,
जीवन सरिता को बहना होगा.
धर्म और मोक्ष के कगार बीच,
ReplyDeleteजीवन सरिता को बहना होगा.
श्रीमान सार्थकता से परिपूर्ण रचना ...
बधाइयाँ स्वीकारें
सही कहा है, सुख शांति के लिए धर्म का मार्ग अपनाना ही होगा, सुंदर संदेश देती कविता !
ReplyDeleteचाहिए यदि सुख-शान्ति जीवन में,
ReplyDeleteचत्वारि पुरुषार्थ को मानना होगा.
धर्म और मोक्ष के कगार बीच,
जीवन सरिता को बहना होगा. .......badhiya taartmya...kushal jivan ki kunji.badhiya post.
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ReplyDeleteधन एषणा से बच पाया है क्या कोई ? अर्थ लोभ संवरण करने वाला तो कोई योगी ही हो सकता है। आम इंसान तो इस लोभ से मुक्त नहीं । जो ईमानदार और निर्विकार भी रहना चाहते हैं , उन्हें इसी अर्थ द्वारा या तो खरीद लिया जाता है अथवा दमन कर दिया जाता है।
बहुत सुन्दर कविता।
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Asgutosh ji,
ReplyDeleteAnita ji,
Aevibd ji,
Dr. Divya ji
सभी पधारनेवाले सुधी समीक्षकों का अभिवादन, स्वागत. हां यह सही की अर्थ आज बहुत महत्वपूर्ण है. मत्वपूर्ण तो पहले भी था तभी तो धर्म के बाद सीधे दूसरा स्थान मिला है. लेकिन उसे धर्म और मोक्ष की सीमाओं में रहने का निर्देश है. यह निर्देश त्यागमय भोग की बात करता है. विलासिता और संग्रह की नहीं.मुझे तो मात्र इतना ही कहना है -
अर्थ को मानना चाहिए स्वधर्मों का निर्देश
अभाव में इस आलोक के बन अनर्थ देता है 'क्लेश'.
इसे परार्थ सर्वार्थ बनाने देखो मोक्ष की ओर.
दिया प्रकृति ने है बहुत यहाँ संतोषी के लिए.
लेकिन बनकर असंतोषी सुरम्य जगत को कष्ट दिए.
निरंकुश अर्थ बना देता है पापी बेईमान और भ्रष्टाचारी.
तुमको हमको बनना है कैसा कर लो समझ के तैयारी.
Papa agar purusharta ko samjhne ke liye kahein, ki dharma ke arth ko samajhkar uske anurup - kaam karo, to moksha swam mil jayega... to kitna sahi hoga!
ReplyDeleteबेटा!
ReplyDeleteधर्म का तात्पर्य आदर्शमय सुखी जीवन से है. सुख की परिभाषा भी बिल्कुल अलग है. इस धर्म पथ के लिए अर्थ एक साधन है. यदि साधन ही बना रहे तो उत्तान है. यदि साध्य बन गया तो कलह और पतन का कारण होगा. काम की संगे मोक्ष से है. एक सिरे पर धर्म है और दूसरे पर मोक्ष. इसी के बेच अर्थ और काम को रहना चाहिए. यदि नदी किनार्रों के बीच बहती है तो ठीक जब किनारे को तोड़ेगी तो कहर लाएगी. आपदा विपदा लाएगी. ऐसे ही जीवन है. यहाँ हमें राष्ट्रीय क़ानून और नैतिक मर्यादों का पालन करना पड़ता है. तोड़ने पर दंड का प्राविधान है. यह बिल्कुल अलग बात है की फिर भी लोग नियन -क़ानून तोड़ते हैं और साफ़ बच जाते हैं. लेकिन कब तक....?.