भीषण लाया कहर निज संग.
देखो! ये लाया संग है सुनामी,
जन-जीवन की कठिन कहानी.
मृदुल प्रकृति क्यों हुई कुपित?
सोचो पुनः क्यों हो तुम चकित?
क्या यह क्रोध प्रकृति का केवल?
या करनी इसमें कुछ अपनी भी?
पीछे इसके छेड़-छाड़ है विज्ञान की?
क्या अवहेलना नियम साहचर्य की?
आवश्यक सामंजस्य व संतुलन की?
क्या रह गयी कमी अंतर्मिलन की?
करना होगा गहन विचार हमें,
यदि भविष्य सुरक्षित रखना है?
क्या जाने आगे फिर कैसा ...?
दुर्दिन हमको और देखना है?
हमें क्यों लगता है ऐसा.?
अति- वृष्टि और अनावृष्टि,
यह सुनामी और भूकंप,
यह प्रकृति का दोष नहीं.
अति भौतिकता की दौड़ में,
उपेक्षित प्रकृति का रोष है.
प्रकृति नहीं है केवल जड़,
चेतना तक है उसकी जड़.
गर है इसमें कुछ भी सच्चाई,
होगी यह एक बड़ी अच्छाई.
सब छोड़ के पीछे हम अब..,
करें पड़ताल, जाने सच्चाई..
अच्छी बात, करें उपयोग अणु का
आणविक-परमाणविक ऊर्जा का.
पर रखे ध्यान सुरक्षित प्रकृति का
पहला दायित्व तो यह है अपना,
करें सुरक्षित मानव को, मानवता को
दूजा यह कि रखें संतुलित प्रकृति को.
अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति को.
अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति को.
सन्देश के साथ जागरूक करती अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteसमय रहते मानव चेत जाये तभी अच्छा है.
ReplyDeleteप्रकृति का दोहान कर हम अपने लिए ही विनाश का कारक बन रहे हैं।
ReplyDeleteSangita ji, Anita ji, Manoj ji !!
ReplyDeleteThanks and many thanks for your kind visit and valuable comments.
प्रकृति तीनों गुणों में संतुलन का अभाव इस प्रकार के उपद्रवों का जनक है, चाहे व्युष्टिगत प्रकृति हो या समष्टिगत। यह असंतुलन मानुषी कृत्यों के कारण भी होता है और प्रकृति स्वयं भी इसका कारक है, संतुलन बनाने के लिए। आपने अपनी कविता के द्वारा इन तथ्यों के प्रति जागरुक कर बड़ा उपकार किया है। आभार।
ReplyDeleteडॉ.साहब, आपको होली की हार्दिक मंगलमयी कामनाएँ।
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 22 -03 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
राय साहब! नमस्कार,
ReplyDeleteसहमत हूँ आपसे. प्रकृति त्रिगुणात्मिका (रज+सत+तम) का मिश्रण होती है, यही सांख्य दर्शन का आधार है और उसका संतुलन और असंतुलन ही क्रिया-कलापों तथा निर्माण और ध्वंश का प्रमुख कारण है.इसे दार्शनिक भाषा में न कहकर सर्व सामान्य के लिए लोक भाषा में कहना चाहा है साथ ही एक उथल पुथल अपनी संश्कृति और मानवीय मूल्यों पर भी आया हुआ है. भूलंप और सुनामी के खतरे और तबाही को तो सभी देख रहें है परन्तु कितने हैं जो मूल्यों में गिरावट से हो रही क्षति और अपनी पहचान खोने के प्रति जागरूक है. आप का आभार पदार्पण और सुझाव दोनों के लिए.
आपको भी होली की मंगल कामना.
संगीता जी
ReplyDeleteआपने इस रचना के बाव को गगरी से समझा और चर्चामंच में सम्मिलित करके इसी सम्मानित किया, इसके लिए आभर.
प्रकृति से खिलवाड़ , मानवता के विनाश के ओर बढ़ते कदम. विकास के पर्याय बन आधुनिक मनुष्य पर्यावरण के बारे में सोचते तो है, ब्रह्माण्ड धरती सम्मलेन भी होते है लेकिन नतीजा , वही ढाक के तीन पात . कभी मेरे ब्लॉग पर आकर मुझे अनुग्रहित करे .
ReplyDeleteआपकी ये दो पंक्तियाँ ही सारे भेद खोल रही हैं।
ReplyDeleteक्या अवहेलना नियम साहचर्य की?
आवश्यक सामंजस्य व संतुलन की?
साहचर्य, सामंजस्य, समरसता का संतुलन बिगड़ गया है।
Mr.Ashish ji, Dr. Yadav Sir,
ReplyDeleteआप का आभार पदार्पण और सुझाव दोनों के लिए.
Beautiful creation with a wonderful message in it.
ReplyDeleteDr, Divya!
ReplyDeleteThanks for your kind visit and valuable comments.